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________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * १५ * प्रेम का तत्त्वज्ञान भलीभाँति जानते-समझते हैं। वहाँ न किसी को डराओ और न किसी से डरो, विशुद्ध प्रेम का पान करो-कराओ तो अनायास ही समता और निर्भयता की सिद्धि प्राप्त हो सकती है। जब साधक की आत्मा इतनी उच्च भूमिका पर पहुँच जाती है, तब वीतरागता और सर्वकर्ममुक्ति की निकटता में कोई संदेह नहीं रह जाता। बारहवाँ सोपान : घोर तप-सरस अन्न, रजकण-वैमानिक देव-ऋद्धि : इन द्वन्द्वों में मन की समता जिस साधक की स्वभाव में दृढ़तम स्थिरता हो चुकी है, वह यथाख्यातचारित्र की भूमिका प्राप्त करने हेतु प्रमाद, विषय, कषायादि आम्रवों का प्रवेश-द्वार बंद करके संयमनिष्ठ होकर विचरण करता है, किन्तु वह घोर तपश्चर्या करता हुआ भी अथवा सहजभाव से सरस अन्न प्राप्त होने का उपभोग करता हुआ भी संयम (समभाव) नहीं रख पाता है तो उसका संयमविहीन तप तेजस्वी नहीं हो पाता। ऐसा तप कदाचित् कामनाविजय में भी साधक नहीं हो पाता। अतः जैसे अस्खलित बहती हुई नदी, खाड़ी के बाद समुद्र में प्रवेश करती है, वैसे ही पद्यकर्ता की वाणी संयम की खाड़ी को पार करके अब तप के समुद्र में प्रविष्ट होती है। अर्थात् दो-दो (संयम और तप की) कसौटियों से पार उतरा हुआ कुन्दन अब धधकती हुई समता की गोद में स्वयं को समर्पित कर देता है। देखिये वह पद्य “घोर तपश्चर्यामां (पण) मन ने ताप नहि। सरस अन्ने नहि मन ने प्रसन्नभाव. जो॥ रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी। सर्वे मान्यां पुद्गल एक-स्वभाव जो॥१२॥" . अर्थात् महाकठिन तपश्चर्या हो रही हो, फिर भी मन में लेशमात्र भी घबराहट • न हो, अत्यन्त मधुर और रुचिकर (स्वादिष्ट) खान-पान मिलने पर भी जीभ की स्वाद-लालसा तीव्र न हो तथा मन पर खुशी के विषय-संस्कार भी न पड़ें, क्योंकि यह भूमिका भी ऐसी है, जहाँ रजकण और इन्द्र की अक्षय समृद्धि, दोनों के प्रति मूल स्वभाव से एक ही प्रकार के पुद्गल हैं, ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाती है। ऐसी धन्य घड़ी जब आये तो समझना चाहिए कि अब समता (वीतरागता) के शिखर पर पहुँचने में रुकावट नहीं है। घोर तपस्या इसे कहें या उसे ? पद्य में तप के पूर्व घोर विशेषण का अर्थ भयावह या कठिन होता है, परन्तु यहाँ यह कठिन तपस्या दीर्घकाल तक उपवास करने के अर्थ में नहीं है। अगर इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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