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* ५८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
स्थिति में बहिरात्मा बना हुआ शरीरदृष्टि मानव प्रायः भोगसाधना ही करेगा; समतायोग की साधना नहीं। समतायोग आध्यात्मिक वस्तु है, वह आत्म-भावों में लीन होने या आत्मा में अवस्थित होने की वस्तु है। इसी दृष्टि से 'भगवतीसूत्र' में कहा गया है-“आत्मा ही सामायिक (समत्वयोग) है, आत्मा ही सामायिक (समतायोग) का अर्थ (समता की उपलब्धि का) प्रयोजन है।" ऐसे समतायोग की उपलब्धि शरीरप्रधानदृष्टि के रहते नहीं हो सकेगी, क्योंकि शरीरादि पर ममत्व समत्व का विरोधी है, विषमतावर्द्धक है। ऐसे भेदविज्ञान के दृढ़-संकल्प के बिना समता सुदृढ़ एवं परिपक्व नहीं होती।' ममत्व और समत्व परस्पर विरुद्ध हैं
जिंदगी का शरीर से सीधा सम्बन्ध है। इसलिए अज्ञजन जिंदगी के ममत्व को लेकर शरीरादि के लिए संसार की वस्तुओं, व्यक्तियों और मान्यताओं पर हठाग्रहपूर्वक मेरेपन की छाप लगाता है। अपनी कल्पित वस्तु व्यक्ति या मान्यता, अन्ध-विश्वास आदि पर 'मेरापन' स्थापित करने से राग, आसक्ति, मोह हो जाता है, समत्व से वह कोसों दूर हो जाता है, ममत्वबद्धि ही प्रति क्षण दौड़ लगाती रहती है। मेरे के इस घेरे से एक भी चीज छूटती या वियुक्त हो जाती है, तो उसे मृत्यु का-सा अनुभव होने लगता है। किन्तु समतायोगी सोचता है कि ममत्व काल्पनिक है, जबकि समत्व स्वाभाविक है। संसार में कोई भी वस्तु मेरी नहीं है। मेरी होती तो वह नष्ट या वियुक्त होती ही क्यों? संसार की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिस पर मैं ममत्व करूँ। अनित्यता मेरा (आत्मा का) स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव तो नित्यता है। नमि राजर्षि ने इन्द्र को यही कहा था-"हम इसलिए सुख से रहते हैं और जीते हैं कि संसार में हमारा कुछ भी अपना नहीं है। हमारी आत्मा अकिंचन है। इसलिए मिथिला के जल जाने पर मेरा (आत्मा का) कुछ भी नहीं जलता।” यह है भेदविज्ञानी समतायोगी का अकाट्य उत्तर।
(५) आत्म-भावरमणरूप समभाव-भावनात्मक समभाव का यह पाँचवाँ अंग है। वस्तुतः समतायोग मूल में आध्यात्मिक वस्तु है। वह आत्मा में अवस्थित होने अथवा आत्म-भावों में लीन होने की वस्तु है। ‘समयसार टीका' में सामायिक का निर्वचन इस प्रकार किया गया है-“समय का अर्थ है-आत्मा। उसके साथ एकीभूत होकर रहना (समाय है, समाय) जिसका प्रयोजन हो, वह सामायिक है अर्थात्
आत्म-भावों में रमण करना सामायिक है।" आत्म-भावों में निवास (स्थिरता) कैसे किया जाय? इसके लिए 'नियमसार' में कहा गया है-“यदि तू अपने आप
-भगवतीसूत्र
१. आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे। २. सुहं वसामो जीवामो, जे सिं मो नत्थि किंचणं।
मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचणं॥
-उत्तराध्ययन, अ. ९, गा.१४
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