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® ५६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ *
(सहजभाव से) जो भी कुछ (अच्छा या बुरा संयोग) प्राप्त हो, उसी में सन्तुष्ट रहने वाला (हानि-लाभ, हर्ष-शोक, शीत-उष्ण, जीवन-मरण, अनुकूल-प्रतिकूल आदि) द्वन्द्वों से अतीत (पर) तथा मात्सर्य (ईर्ष्या, डाह) से रहित एवं सिद्धि (सफलता)
और असिद्धि (असफलता) में सम रहने वाला समतायोगी कर्म करता हुआ भी कर्मबन्ध से युक्त नहीं होता।” अनुकूल हो या प्रतिकूल क्षेत्र : समतायोगी समभाव में स्थिर रह सकता है
इसी प्रकार समतायोगी को मनोज्ञ, सुन्दर, अनुकूल या अच्छा क्षेत्र (स्थान). मिले या अमनोज्ञ, गंदा, बुरा, प्रतिकूल क्षेत्र (स्थान) मिले, वह मन को समभाव में स्थिर रहकर यथालाभ संतोष कर लेता है। प्रत्येक स्थान में अपने आप को एडजस्ट कर लेता है। क्षेत्र से यहाँ मनोज्ञ-अमनोज्ञ, सुन्दर-असुन्दर, अच्छा-बुरा, अनुकूल-प्रतिकूल, घर, मकान, निवास-स्थान, झोंपड़ी, बाग, महल, कुटिया, मंदिर, गुफा, शहर, गाँव; प्रान्त, राष्ट्र, स्वदेश, परदेश, जंगल, नदीतट, समुद्रतट, वृक्षतल या रेगिस्तान अथवा हरा-भरा उपजाऊ स्थान, अच्छा-बुरा खेत, रूखा-सूखा या हरा-भरा प्रदेश आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। कैसा भी स्थान या क्षेत्र मिले, : उसी में सन्तोष करना, प्रिय के प्रति राग, अप्रिय के प्रति द्वेष, घृणा आदि न करने से ही समतायोग में स्थिर रहना चाहिए, तभी कर्मनिर्जरा होगी। महल हो या जंगल, समतायोगी के लिए दोनों समान हैं ___ एक राजा एक निःस्पृह संन्यासी को अपने महल में ले आया। महल में भी वह अलिप्तभाव से रहता था। रानियों की आग्रहभरी प्रार्थना के कारण संन्यासी को दो-चार दिन नहीं, एक महीना बीत गया। राजा ने सोचा-इनको महल में रहने का चस्का लग गया है। अतः एक दिन राजा ने कहा-“आज हम जंगल में घूमने चलेंगे।" संन्यासी इसके लिए तुरंत तैयार हो गया। दोनों नगर से बहुत दूर जंगल में पहुंच गए, तब राजा ने कहा-“महाराज ! अब बहुत दूर आ गए, वापस महलों की ओर लौट चलें।" संन्यासी ने कहा-“अब लौटकर महलों में क्या जाना है? अब मैं तो जंगल की ओर ही बढूँगा।" राजा ने पूछा-"क्षमा करें, महाराज ! एक बात पूछता हूँ, मैं भी महलों में रहता था, आप भी; फिर आप में और मेरे में क्या अन्तर रहा?" संन्यासी ने उत्तर दिया-“राजन् ! मैं महल में था, तब भी मेरे मन में महल नहीं था; तुम महल में थे और अब भी तुम्हारे मन में महल है। मैं जंगल में था, तब भी महल की मस्ती में था और महल में था, तब भी जंगल में बैठा था।
१. यदृच्छा-लाभ-सन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च, कृत्वाऽपि न निबध्यते॥ २. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. १५३-१५४
-भगवद्गीता, अं.४, श्लो. २२
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