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४२ कर्मविज्ञान : भाग ८ ३
भावनात्मक समतायोग की प्रबलता तथा दृढ़ अभ्यास होने पर मुमुक्षु-साधक शीघ्र ही परमात्मपद को मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। भावनात्मक (समता) योग का महत्त्व एवं सुफल बताते हुए 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है-"जिसकी आत्मा भावनात्मक (समत्व ) योग से शुद्ध है, वह व्यक्ति जल में नौका के समान संसार-समुद्र को पार करने में समर्थ कही गई है । जैसे तट पर पहुँचकर नौका विश्राम करती है, वैसे ही भावनात्मक (समता ) योगी भी संसार - समुद्र के तट पर पहुँचकर समस्त दुःखों से छूट (मुक्त हो ) जाता है। "
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भावनात्मक समभाव के कई रूप हैं। मुख्यतया हम इसे पाँच रूपों में विभक्त कर सकते हैं- (१) सर्वप्राणियों के प्रति समभाव, (२) मैत्र्यादि भावनामूलक समभाव, (३) पारिस्थितिक समभाव, (४) भेदविज्ञानरूप समभाव, और (५) आत्म-भावरमणरूप समभाव ।
( १ ) समस्त जीवों के प्रति समभाव - इसे हम संक्षेप में आत्मौपम्यभाव कह सकते हैं। इसी आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना से व्यक्ति प्राणियों में शान्ति, समाधि, विश्वास और आश्वासन तथा निर्भयता जगा सकता है। भगवान महावीर की यह अनुभवमूलक उक्ति कितनी प्रेरणादायी है - " अप्पसमं मन्निज्ज छप्पिकाए।" षट्कायिक जीवों (समस्त प्राणियों) को आत्मवत् माने और देखे । 'अनुयोगद्वारसूत्र' में इस भावनात्मक समतायोग ( सामायिक) का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है" जो त्रस और स्थावर, सभी प्राणियों पर सम है - समभावी है, उसी की सही माने में सामायिक (समतायोग- प्राप्ति) होती है, इस प्रकार केवलज्ञानी भगवान द्वारा भाषित है । जिसमें आत्मौपम्यभाव का विकास हो जाता है, वह समतायोगी मनुष्य से लेकर विश्व के समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य मानता है । वह संसार के सभी प्राणियों में अपना ही प्रतिबिम्ब देखता है। तब उसे प्रत्येक प्राणी में अपना ही आकार-प्रकार, अपने ही समान सुख-दुःख, अपने ही समान अनुभूति, अपने ही समान संवेदन प्रतीत होने लगता है। इसी आत्मौपम्यदृष्टि को लेकर भगवान महावीर ने ‘आचारांगसूत्र' में कहा है- "तू वही है, जिसे तू मारना चाहता है। तू वही है, जिसे तू शासित करना चाहता है। तू वही है, जिसे तू परिताप ( सन्ताप) देना चाहता है। तू वही है, जिसे तू गुलाम या बंदी बनाकर रखना चाहता है। तू
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१. (क) भावणा- जोग-सुद्धप्पा जले नावा व आहिया।
नावा व तीर संपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ ||
- सूत्रकृतांगसूत्र १/१-५/५
(ख) देखें - इस गाथा की व्याख्या सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९५८ २. जो समो सव्व भूएसु तसेसु थावरेसु य।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि - भासियं ॥
- अनुयोगद्वारसूत्र
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