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________________ • समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल | ३९ । ऐसा नायकभाव तभी दृढ़ हो सकता है, जब यमत्वसाधक 'समाधितंत्र के अचुसार-'मैं गोरा हूँ, मैं स्थूल या कृश हूँ, इस प्रकार शरीर के साथ तादात्म्य का अनुभव न करता हुआ, एकमात्र ज्ञान ही मेरा शरीर है, इस तथ्य से भावित होता है। अर्थात् केवल शुद्ध ज्ञायकभाव के साथ-ज्ञान के साथ ही अपने तादात्म्य का अनुभव करता है।'' 'अमृतवेल की सज्झाय' में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-"मैं (आत्मा) (निश्चयनय से) अखण्ड आनन्द और ज्ञानम्वरूप ही हूँ; मन-वाणी-काया मैं नहीं हूँ। मन-वाणी-काया से होने वाले कार्य भी मेरे नहीं हैं, ऐसे भानपूर्वक मन-वाणी-काया से होने वाली क्रिया को शान्तभाव से सिर्फ देखते-जानते रहो।" ऐसे शुद्ध ज्ञायकभाव के प्रकट होते ही तत्क्षण मुक्ति की लहर के स्पर्श का अनुभव होता है। वाह्य समस्त दृश्य जगत् से वह स्वयं को विलकुल स्वतंत्र अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में समत्वसाधक देह और मन के पर्यायों से स्वयं (आत्मा) को भिन्न देख सकता है, वही कर्मकृत व्यक्तित्व से ऊपर उठ जाता है। वह यह जानता-देखता है कि तन और मन के सभी परिवर्तनों के बीच स्वयं एक अखण्ड सत्तारूप में अचल है। बाह्य समस्त परिवर्तनों से-प्राप्तियों, संयोगों या विचारों सेस्वयं को कोई हानि-लाभ नहीं है। ‘ऐजन' के अनुसार-“आत्मा को इन सबसे पृथक् और सदानन्दमय देखने वाले समत्व-साधक को दुःख में द्वेष और सुख की स्पृहा नहीं होती।" ऐसी सम्यग्दृष्टि खुल जाने पर रति-अरति या राग-द्वेष के चक्र में फँसे विन्ना, समभाव में रहकर संकल्प-विकल्प के चंगुल से मुक्त हो जाता है। फिर मुक्ति की मंजिल उस साधक से दूर नहीं रहती। ‘ज्ञानार्णव' में कहा है“चिरकाल से दृढमूल हुए अविद्या के संस्कारों के कारण चित्त आत्म-तत्त्व से दूर रहता है, परन्तु वही चित्त एकमात्र ज्ञान से वासित होने पर हृदयगुफा में स्थित आत्म-देव को देख पाता है।" समत्वयोग का ही यह चमत्कार है।' (क) गौर: प्थूलः कृशो वाऽहमित्यंगेनाविशेषयन् । आत्माने धारयेन्नित्यं केवल-ज्ञप्तिविग्रहम्॥ ___-समाधितंत्र, श्लो. ७0 (ख) 'अमृतवेलनी सज्झाय' (उपाध्याय यशोविजय जी) से भाव ग्रहण, गा. २४ (ग) 'साधनानु शिखर : साक्षीभाव' (मुनि श्रीअमरेन्द्रविजय जी) ये भाव ग्रहण (घ) ततो विविक्तमात्मानं सदानन्दं प्रपश्यतः। नाऽग्य संजायते द्वेपो, दुःखे, नाऽपि सुखे म्पृहा॥ -ऐजन, श्लो. ५)३ (ङ) अज्ञान-विलुप्तं चेतः, स्वतत्त्वादपवर्तते। विज्ञानवासित तद्धि, पश्यत्यन्तःपुरे प्रभुम्॥ -ज्ञानार्णव, सर्ग ३२, श्लो. ५0 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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