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ॐ ३४ , कर्मविज्ञान : भाग ८ 0
ऐसे समतायोगी साधक के जीवन में सम्यग्दृष्टिपूत सम्यग्ज्ञान प्रकाशित हो उठता है। उसके अज्ञान अन्ध-विश्वास, भ्रान्ति और मोह का अन्धकार नष्ट हो जाता है। वह मोक्ष के स्वाधीन और अव्यावाध सुख को इसी जीवन में प्राप्त कर लेता है।' ___ 'भगवद्गीता' भी इसी तथ्य की साक्षी है-जिनका मन यमत्वभाव में स्थित है, उन्होंने जीते-जी ही सारे संसार को जीत लिया। अर्थात् वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं। क्योंकि सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म (शुद्ध आत्मा) निर्दोष और सम है। इसलिए वे समभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म (शुद्ध आत्मा = परमात्मभाव) में स्थित हैं।" ___ 'प्रशमरति' में इस तथ्य को स्पष्ट रूप से निरूपित किया गया है- ''स्वर्ग के. सुख परोक्ष हैं, अतः उनके बारे में कदाचित् विचिकित्सा हो सकती है। मोक्ष का मुख उससे भी परोक्ष है। अतः उसके विषय में तुम्हें सन्देह हो सकता है। किन्तु समताधर्म से प्राप्त होने वाला प्रशम (शान्ति) का सुख प्रत्यक्ष है। इसे प्राप्त करना भी पराश्रित नहीं है, स्वाधीन (स्व-वश) है और इसे प्राप्त करने में अर्थव्यय भी नहीं होता, किन्तु आत्मा में समत्व की अनुभूति करने से वह सुख प्राप्त हो सकता है।३ निष्कर्ष यह है कि समत्व की साधना से जिस आत्मिक-सुख की प्राप्ति होती है, उसमें न तो कोई व्यक्ति बाधक हो सकता है, न परिस्थिति और न ही कोई वस्तु। . समतायोगी साधक में दुःख को सुखरूप में परिणत करने की कला . समतायोगी साधक में ऐसी कला, ऐसी सम्यग्दृष्टि होनी चाहिए कि वह दुःख को भी साम्य भावनाओं से, सुख में परिणत कर सके। मनुष्य के पास भावना, अनुप्रेक्षा, साहस, उत्साह, पौरुष और क्षमता आदि सब कुछ है, अगर उसके साथ समत्व की सुदृष्टि हो तो दुःख भी विकासप्रेरक आत्मोन्नतिजनित सुखरूप प्रतीत होगा। 'अध्यात्म कल्पद्रुम' में दुःख और सुख के मूल को बताते हुए कहा गया है"हे विद्वान् ! शोकों (चिन्ताओं) का मूल ममता है और सुखों का मूल है-समता। इस तत्त्व को समझो।” समतायोगी दुःख के समय घबराता और चिन्तित नहीं होता, वह सोचता है-“मुझे अपने पूर्वकृत पापकर्मों को काटने का सुन्दर अवसर मिला है।" इसके अतिरिक्त दुःख आ पड़ने पर मनुष्य सावधान और अप्रमत्त होकर समभावपूर्वक उस दुःख को ज्ञानबल से सहकर निर्जरा कर सकता है।
१. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ११४-११५ २. इहैव तैर्जितः स्वर्गो, येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म, तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।। ___-भगवद्गीता, अ. ५, श्लो. २० ३. स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम्। प्रत्यक्षं प्रशमसुखं, न परवशं, न च व्ययप्राप्तम्॥
-प्रशमरति, श्लो. २३७ ४. (क) 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. १२१
(ख) अवेहि विद्वन् ! ममतैव मूलं, शुचां सुखानां समतैव चेति। -अध्यात्म कल्पद्रुम
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