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________________ * मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान ५०१ स्थूलभद्र मुनि के कोशावेश्या के यहाँ चातुर्मास निवास के प्रसंग से जान लेना चाहिए। साक्षीभाव के प्रति पूर्ण वफादारी के बिना ऐसी परिस्थिति में गर्व अथवा पतन से बचना अशक्य है। सूक्ष्म लोभ की पकड़ से कैसे छूटें ? इतनी उच्च भूमिका पर पहुँच जाने के बाद भी एक अन्तिम, किन्तु सबसे बड़ा आवरण सूक्ष्म लोभ है, जो आत्म-सूर्य के पूर्ण प्रकाश को रोके रखता है। उससे बचने के लिए कहा है- " लोभ प्रत्ये नहि लोभ समान जो ।” - लोभ के समक्ष लोभ जैसा नहीं बनना; यह बात बहुत ही दुष्कर है। इससे पूर्व के पद्य में 'वीतलोभ' की बात बताई गई थी। परन्तु यहाँ उससे भी ऊँची बात है । इतना उच्च साधक (नौवें गुणस्थान में) सूक्ष्म माया के भी सर्वथा छूट जाने पर स्वयं उसकी ओर खींचने का लोभ न करे, स्वयं किसी प्रकार की इच्छा (लोभ) न रखे, यह बहुत सम्भव है। परन्तु उसके पास खिंचकर कोई चला आए तथा गले ही पड़ जाए तो उसका क्या इलाज ? वैसे तो कोई उक्त साधक के प्रति स्वयं आकर्षित होकर आये और गले ही पड़ जाए, उसके पीछे भी सूक्ष्म (कर्मोदयिक) कारण अपने में ही रहे हुए हैं, अन्यथा ऐसा कभी सम्भव नहीं होता। इसलिए ऐसा साधक न तो लोहा बने और न चुम्बक ही । लोभी को जैसे लोभ खींच लेता है, तो अन्त में लोभी और लोभप्रदाता दोनों ही पीड़ित होते हैं। वैसे ही ऐसे साधक में समस्त शक्तियाँ सांगोपांग रूप से विकसित हो जाने से जगत् उसकी ओर तारक या परमात्मा के रूप में निहारने लगता है। ऐसी स्थिति में यदि वह विचलित हो गया, अर्थात् वह अपनी अपूर्णता को पूर्णता मानकर अटक गया तो ठेठ पैंदे में जाकर बैठने का अवसर आ जाता है । वह स्वयं भी डूबता है और उसकी शक्तियाँ भी । ' क्षपकश्रेणी वाला साधक ऐसे प्रसंग पर ज्ञाता - द्रष्टा बनकर यह सब नाटक ( तटस्थ भाव से ) देखता रहता है। इसीलिए डोरी पर नाचते हुए नट की तरह वह अपनी सूरता (आत्म - ध्यान) निश्चल रूप से टिकाये रखता है और इस . सारे इन्द्रजाल के तमाशे को उच्च भावों से अन्तर्मुहूर्त में ही निपटा ( समेट) कर पुनः सदा के लिये ( वीतराग के ) सच्चे राजपथ पर आ जाता है। इस प्रकार की वर्णित भूमिका में धर्मध्यान और शुक्लध्यान दोनों होते हैं । परन्तु क्षपकश्रेणी वाले आत्मा के लिये अन्तिम प्रतिष्ठान क्षेत्र तो शुक्लध्यान ही है। उसी में उसे एकाग्र होना है। 9. (क) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ५२-५४ (ख) उत्तराध्ययन, अ. २९, गा. ६७-७० (ग) दशवैकालिक, अ. ८, गा. ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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