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________________ * मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ॐ ४७३ 8 पंचम सोपान : योगत्रय में आत्म-स्थिरता दर्शनमोह के सागर को पार करने के बाद जब सम्यग्ज्ञान का प्रकाश होता है, तब विचार, वाणी और व्यवहार में-संक्षेप से मन-वचन-काया, इन तीनों योग में आत्मा की सतत स्मृति रहनी चाहिए। यहाँ योग का अर्थ है-आत्मा और प्रवृत्ति का जुड़ना। वह प्रवृत्ति तीन माध्यमों से होती है-मन से, वाणी से और काया से। सक्रिय मन के साथ आत्मा के जुड़ने को विचार, वाचा के साथ आत्मा के जुड़ने को वाणी और काया के साथ आत्मा के जुड़ने को व्यवहार (वर्तन) कहा जाता है। दृष्टि की मूढ़ता दूर हो जाने से जब देहभिन्न केवल चैतन्य का ज्ञान-भान होता है, तव सर्वप्रथम विचार और भावना के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन होता है। फलतः वाणी चेतनाशील, मधुर अमृतोपम और प्रमाणभूत बनती है और व्यवहार में सत्य करवटें लेने लगता है। यद्यपि बेसमझ व्यक्ति (अज्ञानी) के भी विचार, वाणी और व्यवहार आत्मा के साथ संयोग से रहित नहीं होते, किन्तु ज्ञानी और अज्ञानी के विचार, वाणी और व्यवहार में अन्तर यह है कि अज्ञानी की दृष्टि में मूढ़ता होने से ज्ञान सम्यक् नहीं होता, फलतः आत्मा से जुड़ने पर भी तीनों में सत्यलक्षी परिवर्तन नहीं होता, कदाचित् हो तो भी क्षणिक् होता है, जबकि ज्ञानी के इन तीनों योगों में सत्यलक्षी परिवर्तन हो जाता है, साथ ही उसके विचार, वाणी और व्यवहार के साथ आत्मा का संयोग सत्यलक्षी और स्थायी होता है, उनमें आत्म-स्थिरता आजीवन बनी रहती है। इसीलिए कहा गया है-“आत्म-स्थिरता त्रण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते देहपर्यन्त जो।' ___ आत्म-स्थिरता यानी सतत आत्म-स्मृति या आत्म-जागृति से लाभ आत्म-स्थिरता से लाभ यह है कि जिसके विचार में आत्म-स्थिरता होती है, वह दूसरों के लिए या अपने लिए भी बुरा चिन्तन नहीं करता, वाणी में आत्म-स्थिरता होने पर वह विचार, वाणी और आचरण में असत्य को कदापि स्थान नहीं दे सकता। जिसके कार्य (काया) में आत्म-स्थिरता होती है, वह कोई भी चेष्टा या व्यवहार आत्म-विरुद्ध या लोक-विरुद्ध कर नहीं सकता। आत्म-स्थिरता साधक का कोई भी शत्रु नहीं रहता। उसके लिए 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' स्वाभाविक हो जाता है। जिसने आत्म-स्थिरता का आनन्द लूटा है, उसकी दृष्टि में विकार या स्पर्श हो ही नहीं सकता। भक्त तुकाराम की भावना के अनुसार वह अन्धा होना कबूल कर सकता है, परन्तु पापमयी वासना (दुर्भावना, दुर्दृष्टि) को कभी स्थान नहीं दे सकता। उसके प्रत्येक कार्य में जब आत्म-स्थिरता आ जाएगी तो प्रत्येक प्रवृत्ति यतनामय, संयममय, सत्य से ओतप्रोत होगी। प्रत्येक कायिक, वाचिक और १. पापाची वासना न को दाऊं डोला, त्याहुनी आंधला वरा च मी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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