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४६४ कर्मविज्ञान : भाग ८
दूर ही रहेगी। इसलिए वन्धन चाहे वे सजीव पर - पदार्थ के साथ हों या निर्जीव पर-पदार्थ के साथ, दोनों में निम्नोक्त विवेकसूत्र या यतनासूत्र अपनाने होंगे। पहला . विवेक तो यह करना होगा कि उन सम्वन्धों में से कौन-से सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों के साथ सम्वन्ध रखना अत्यावश्यक है ? दूसरा विवेक यह करना होगा कि जिसके साथ सम्बन्ध अत्यावश्यक होने से जोड़ा गया या जोड़ा जाय, वह राग-द्वेष-कषाय- नोकषाय आदि विकारों के कारण कर्मवन्धकारक न हो जाय, इसके प्रति जाग्रत रहा जाए। तीसरा विवेक यह हो कि सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों का भी अनिवार्य आवश्यकता से अधिक परिग्रह, संग्रह न किया जाए, अन्यथा उनके प्राप्त करने, उनका रक्षण करने में और वियोग होने से महान् चिन्ता - शोक, उद्विग्नता, ईर्ष्या आदि होंगे, जो तीक्ष्ण भयंकर कर्मवन्ध के कारण वन जायेंगे । चौथा विवेक यह करना होगा कि वाह्य परिग्रह की मर्यादा करने पर भी जो मर्यादा से अधिक परिग्रह था, उसे अपने पुत्र, पुत्री, पत्नी या परिवार के किसी सदस्य के नाम पर या साधुवर्ग द्वारा किसी भक्त - भक्ता या संस्था के नाम पर करके, अंतर में उसके प्रति अपना ममत्व या आधिपत्य न रखा जाए।
निर्ग्रन्थता के अभ्यास में विवेक करना चाहिए
इसलिए सर्वसम्बन्धों के साथ बँध जाने वाले तीक्ष्ण बन्धनों के उच्छेदन के लिए बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के ग्रन्थों (परिग्रहों) से मुक्तिरूप निर्ग्रन्थता प्राप्त करनी चाहिए अथवा निर्ग्रन्थता का अभ्यास करना चाहिए। कई बार साधक अपने परिवार, समाज, धर्म-सम्प्रदाय, जाति, प्रान्त, राष्ट्र, भाषा, परम्परा, रीतिरिवाज, रूढ़ि, प्रथा, शिष्य - शिष्या, पुत्र-पुत्री आदि के साथ अपने आत्मोत्कर्ष के लिये सम्बन्ध बाँधता है, किन्तु वे उसे राग, मोह, मद, पक्षपात, आसक्ति आदि से ऐसे जकड़ लेते हैं कि वह अन्य परिवार, समाज, धर्म-सम्प्रदाय आदि के प्रति द्वेष, घृणा, वैर-विरोध, ईर्ष्या, मात्सर्य, द्रोह आदि करने लग जाता है, तब वे ही पवित्र सम्बन्ध तीक्ष्ण कर्मबन्धक बन जाते हैं।
कई उच्च कोटि के साधक भी सम्बन्धों में निर्लिप्त न रहकर ऐसे स्वार्थ और मोह आदि से ओतप्रोत सम्बन्धों को अधिकाधिक बढ़ाते हैं, अपनी प्रशंसा, प्रसिद्धि, यशःकीर्ति, नामवरी एवं स्वार्थसिद्धि के लिए अनावश्यक सम्बन्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों से बढ़ाते हैं और कर्मबन्ध की गाँठों को अधिकाधिक मजबूत करते जाते हैं। बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थ : स्वरूप, प्रकार और ग्रन्थों से मुक्ति का उपाय
इन गाँठों को तोड़ने और नयी रागात्मक गाँठों को न जोड़ने के लिए वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहरूप ग्रन्थों से मुक्त होने का सतत जागरण, विवेक और यत्नाचारपूर्वक अभ्यास और पुरुषार्थ करना चाहिए। तभी उन वीतरागी महापुरुषों के द्वारा अनुभूत, निर्दिष्ट और अभ्यस्त मुक्ति पथ पर विचरण करने का मनोरथ
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