________________
ॐ ४५०
कर्मविज्ञान : भाग ८०
कि अत्यल्प समय में ही कर्मों के सघन वन्धन क्षीण हो जाते हैं। इस अन्तःक्रिया के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है जैसे कि गजमुकुमाल अनगार।' गजसुकुमाल की अन्तःक्रिया का संक्षिप्त वर्णन __ श्रीकृष्ण वासुदेव ने अपने लघुवन्धु गजसुकुमाल को साथ लेकर भगवान अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ जाते हुए, रास्ते में अपनी सखियों के साथ खेलती हुई सोमल-विप्र की कन्या सोमा को गजसुकुमाल के लिए उपयुक्त समझकर सोमल-विप्र की अनुमति से उसकी मँगनी (सगाई) अपने लघुवन्धु गजसुकुमाल के साथ कर ली।
परन्तु भगवान अरिष्टनेमि का धर्म-प्रवचन सुनते ही गजसुकुमाल की अन्तर्रात्मा प्रवुद्ध हो उठी। माता-पिता तथा श्रीकृष्ण भैया के बहुत मनाने पर भी उसके वैराग्य का दृढ़ रंग नहीं उड़ा। अन्ततोगत्वा सभी ने गज़सुकुमाल के प्रवल विरक्तिपूर्ण आग्रह को मानकर दीक्षा की अनुमति दी। जिस दिन दीक्षित हुए उसी दिन तीसरे प्रहर में भगवान अरिष्टनेमि से बारहवीं भिक्षु-प्रतिमा की आराधना की।
आज्ञा लेकर महाकाल नामक श्मशान में पहुँचे और वहाँ स्थानादि का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करके एकाग्रचित्त होकर कायोत्सर्ग करके ध्यानस्थ खड़े हो गए। संध्या समय सोमिल-विप्र समिधा आदि यज्ञ सामग्री लेकर लौट रहा था कि श्मशान में मुण्डित मस्तक ध्यानस्थ खड़े हुए गजसुकुमाल को देखकर क्रोध से आगबबूला हो गया कि मेरी निर्दोष कन्या का जीवन क्यों बर्बाद किया? क्रोधान्ध सोमिल ने निकटवर्ती तालाब से गीली मिट्टी लाकर गजसुकुमाल मुनि के सिर के चारों ओर उसकी पाल बाँधी। फिर एक जलती हुई चिता से एक ठीकरे में धधकते अंगारे लाकर मुनि के मस्तक पर उँडेल दिये और चला गया। किन्तु मुनि के नव-मुण्डित मस्तक पर रखे अंगारों के घोर ताप से उनके मस्तक का रक्त उबलने लगा। अत्यधिक असह्य वेदना और पीड़ा उठी। परन्तु इस वेदना और पीड़ा के समय गजसुकुमाल मुनि एकाग्रचित्त होकर अपने समत्व और आत्म-ध्यान में स्थिर रहे। अपकारी के प्रति उन्होंने जरा भी दुर्भाव नहीं किया, उसे भी क्षमा कर दिया। आत्म-ध्यानलीन क्षमावतार गजसुकुमाल मुनि के द्वारा इस घोर उपसर्ग को समभाव
१. (क) अहावरा दोच्चा अंतकिरिया-महाकम्म-पच्चायाते यावि भवति। से णं मुंडे भवित्ता
आगाराओ अणगारियं पव्वइए, संजमबहुले संवरबहुले (समाहिवहुले लूहे तीरट्ठी) उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी। तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति, तहप्पगारा वेयणा भवति। तहप्पगारे पुरिसजाए णिरुद्धणं परियाएणं सिझति (वुज्झति. मुच्चति परिणिव्वाति) सव्वदुक्खाणमंतंकरेति। जहा से गयसुकुमाले अणगारे-दोच्चा अंतकिरिया।
-स्थानांग, स्था. ४, उ. १, सू. १/२ (ख) 'अन्तकृद्दशा महिमा' से भावांश ग्रहण, पृ. १७ (ग) स्थानांगसूत्र, विवेचन, स्था. ४, उ. १, सू. १/२ (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. २०२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org