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* ४४८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ-पुत्र भरत चक्रवर्ती षट्खण्डाधिपति सम्राट थे। उनके पास अपार वैभव और ऋद्धि-समृद्धि थी। फिर भी राज्य-सम्पदा, सांसारिक सुखभोगों एवं वैभव के प्रति वे अनासक्त एवं निर्लिप्त थे। चक्रवर्ती भरत षटखण्ड राज्य के अधिपति होते हुए स्वयं को स्वामी नहीं, पालक-पोषक एवं रक्षक मानते थे। इतनी निःस्पृहता थी भरत चक्रवर्ती के मन में।
एक बार भगवान ऋषभदेव ने धर्मोपदेश देते हुए कहा-“इतने विशाल साम्राज्य का स्वामी होते हुए भी भरत निर्लिप्त है, वह अल्पकर्मा और चरमशरीरी है, इसी भव में मोक्ष प्राप्त करेगा।" भगवान के इस कथन पर एक व्यक्ति को शंका हुई कि “भगवान भी अपने पुत्र का पक्ष लेते हैं। इतने विशाल साम्राज्य का स्वामी होते हुए भी भरत अल्पकर्मा और निर्लिप्त है और में अत्यन्त निर्धनता में जीवनयापन करने वाला महाकर्मा ?"
चक्रवर्ती भरत को उस व्यक्ति की शंका का पता चला तो उन्होंने युक्तिपूर्वक उसकी शंका का निवारण करने हेतु उसे बुलाकर कहा-“लो, यह तेल से लवालव भरा कटोरा लेकर समूची अयोध्या नगरी में घूमकर आओ। तुम्हारे साथ ये चार संतरी नंगी तलवार लिये रहेंगे। यदि तेल की एक बूंद भी नीचे गिराई तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देंगे।" वह व्यक्ति राजाज्ञा के अनुसार विवश होकर नगरी में कहीं नृत्य-गीत, कहीं हास्य-विनोद एवं नाटक हो रहे थे, कहीं विभिन्न वस्तुओं से दुकानें सजी थीं। मगर उस चहल-पहल एवं राग-रंग की ओर बिलकुल न झाँककर, अपनी दृष्टि सारे रास्तेभर तेल के कटोरे में टिकाये रहा। जब वह सारी नगरी में परिक्रमा देकर लौटा तो चक्रवर्ती भरत ने पूछा-"कहो, शहर में तुमने कहाँ-कहाँ, क्या-क्या देखा?'' वह बोला-“राजन् ! मेरी दृष्टि तो एकमात्र इस तेल के कटोरे पर ही केन्द्रित रही, अतः मैंने अन्य कुछ भी नहीं देखा, क्योंकि इससे दृष्टि हटते ही तेल की बूंद नीचे गिर जाती और मेरी मृत्यु निश्चित थी। इसलिए इस भय से मैं तो उसी पर दृष्टि टिकाये चलता रहा।" भरत ने इस पर से रहस्य खोलते हुए कहा“बन्धु ! मैं भी इसी भाँति जी रहा हूँ। मेरी दृष्टि सिर्फ अपनी आत्मा पर केन्द्रित रहती है। अगर मैंने जरा भी इस पर से दृष्टि हटाकर राज्य, वैभव, भोग-विलास आदि पर-भावों पर आसक्तियुक्त दृष्टि लगाई कि कर्मवन्ध के कारण मेरे सिर पर भी जन्म-मरण का चक्र घूमने लगेगा। इसलिए मैं विशाल साम्राज्य, वैभव, सुखभोग के साधकों से स्वयं को निर्लिप्त रखकर अल्पकर्मा बनकर जी रहा हूँ।" चक्रवर्ती भरत की निर्लिप्त, अनासक्त और अल्पकर्मा होने की बात उसकी समझ में आ गई।
पिछले पृष्ठ का शेष
(ख) स्थानांगसूत्र, विवेचन, स्था. ४, उ. १, सू. १ (ग) संयम और संवर समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु उनके स्वरूप में अन्तर है।
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