SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ ४४२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ * वह मोक्ष या संसार के अन्त तक पहुँच जाता है । ___ वस्तुतः वह दिव्य विचारचक्षु से सम्पन्न या परमार्थ तत्त्वदर्शी तथा सर्वोत्तम. तीर्थंकरोक्त धर्म या संयम का मर्मज्ञ होने से मनुष्यों का नेत्र = नेता या मार्गदर्शक है। क्योंकि वह शब्दादि समस्त विषयों का अन्त कर चुका होता है, अथवा समस्त आकांक्षाओं के अन्त (सिरे) पर स्थित होता है। जैसे उस्तरा या छुरा अन्त (प्रान्त या अग्र) भाग से ही काम करता है, रथ का पहिया भी अन्त = अन्तिम सिरे से मार्ग पर चलता है, जैसे इन दोनों का अग्र भाग ही कार्यसाधक होता है; वैसे ही अन्तःक्रिया साधक संसार का या संसार-परिभ्रमण अथवा कषाय-नोकषायरूप मोहनीय आदि कर्मों का अन्त करके संसार के अन्त (पार) तक या मोक्ष के अन्त (किनारे) पर पहुँच जाता है। संक्षेप में, ऐसे विशिष्ट गुणों से युक्त साधक मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया करके ही दम लेता है।' वे संसार का तथा समस्त दुःखों का अन्त कैसे कर देते हैं ? वे इसलिए संसार का या समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं कि वे परीषहों और उपसर्गों को समभाव, धैर्य और शान्ति से सहते हैं, वे वीर, धीर और कष्ट-सहिष्णु होते हैं। वे विषयों के प्रति निरपेक्ष और अनासक्त होते हैं। वे उदर को भाड़ा देने के लिए ठंडा, बासी, अन्त, प्रान्त, रूखा-सूखा आहार करके जीवन-निर्वाह करते हैं। ऐसे ही मोक्षाभिमुखी साधक मनुष्यलोक में क्षमादि उत्तम धर्मों की आराधना करके संसार-सागर का अन्त कर पाते हैं। इस प्रकार वे संसार के कारणभूत कर्मों का अन्त करते हैं। ऐसे मोक्षाभिमुखी एवं अन्तःक्रिया-तत्पर पुरुष केवल तीर्थंकर, गणधर आदि ही नहीं, दूसरे मानव भी सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म की आराधना करके कर्मभूमि में संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज होकर मोक्षमार्ग की तथा अन्य सदनुष्ठान की पूर्ण सामग्री पाकर संसार का अन्त करने (अन्तःक्रिया करने) वाले अन्तकृत् हुए हैं, होते हैं, होंगे। १. (क) से हु चक्खु मणुस्साणं, जे कंखाए व अन्तए। अंतेण खुरो वहइ, चक्कं अंतेण लोट्टइ॥१४॥ (ख) देखें-सूत्रकृतांग, श्रु. १, पद २0, गा. १४ का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९७० २. (क) अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह। ___ इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिउं णरा॥१५॥ (ख) देखें-सूत्रकृतांग, श्रु. १, पद २०, गा. १५ की व्याख्या, पृ. ९७१ . ३. वही, पृ. ९७१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy