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________________ ॐ ४३२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ भारत का प्रत्येक आस्तिक धर्म, दर्शन या मत-पंथ पुनर्जन्म और मोक्ष में आस्था रखता है तथा एक-भव के स्थूल शरीर से छूटने के बाद (मरने के पश्चात्) भी अगला जन्म अच्छा मिले अथवा जन्म-मरण से सदा-सदा के लिए सर्वथा छुटकारा (मोक्ष) मिले। इसके लिए प्रत्येक धर्म या दर्शन तप, त्याग, संयम, नियम, व्रत, प्रत्याख्यान तथा विविध धार्मिक-आध्यात्मिक अनुष्ठानों तथा साधनाओं का विधान करता है। प्राणी का जन्म लेना जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही, बल्कि उससे भी अधिक उसके जीवन का अन्तिम पराक्षेप महत्त्वपूर्ण माना जाता है। जीवन का यह अन्त दो प्रकार की प्रक्रिया से होता है जिसने अपना नैतिक-धार्मिक जीवन जीया है, उसके जीवन में पुण्यकर्म तो अधिक हुआ है, किन्तु कर्मक्षयरूप संवर-निर्जरामय धर्म का आचरण शुद्ध रूप में नहीं हुआ है तथा अभी तक तैजस-कार्मण शरीर का भी अन्त नहीं हुआ है, उस व्यक्ति की अन्तःक्रिया शुभ होती है। उसका इस भव के स्थूल शरीरादि से छुटकारे के रूप में मृत्युरूप अन्तःक्रिया अच्छी हुई है तो उसे अगला भव भी अच्छा मिल सकता है। तात्पर्य यह है कि यदि उसे देव-भव या नारक-भव भी मिलता है तो वहाँ से च्यवन या उद्वृत्त करके स्थूल शरीरादि से छुटकारा मिल जाने पर अगला जन्म भी अच्छा पा सकता है। इहभविक लौकिक अन्तःक्रिया अच्छी हुई है तो अगला भव भी अच्छा मिल सकता है, मनुष्य-भव मिल जाए तो वह लोकोत्तर अन्तःक्रिया भी कर सकता है जिससे सदा के लिए जन्म-मरणादि का अन्त करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इनके सिवाय जिसकी इहभविक लौकिक अन्तःक्रिया अच्छी नहीं होती है, पापकर्मों का ही जिसके जीवन में अधिक संचय हुआ है, जिसने जीवन में हिंसादि क्रियाएँ ही अधिक की हैं, उसकी अन्तःक्रिया अर्थात् उस भव के स्थूल शरीर के छूटनेमृत्यु के पश्चात् अगला जन्म भी अच्छा नहीं मिलता। 'प्रज्ञापनासूत्र' में वर्णित इस लौकिक अन्तःक्रिया से मुमुक्ष साधक यह जान सके कि किसकी यह अन्तःक्रिया अच्छी होती है और क्यों? लौकिक अन्तःक्रिया की प्ररूपणा क्यों ? वहाँ इस लौकिक अन्तःक्रिया के साथ इस बात की प्ररूपणा भी की गई है कि लोकोत्तर अन्तःक्रिया का अधिकारी एकमात्र मनुष्य ही है। वह भी रत्नत्रयसाधक मनुष्य ही हो सकता है, साथ ही इस तथ्य का भी संकेत किया गया है कि नरक, तिर्यंच और देवगति में से किस गति और किस योनि का जीव अगले भव में या अनेक भवों के पश्चात् मनुष्य-भव पा सकता है और अनन्तर (साक्षात्) या १. (क) देखें-प्रज्ञापनासूत्र, २०वें अन्तःक्रिया पद के प्राथमिक का विश्लेषण (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ३७५ (ख) 'अन्तकृद्दशा महिमा' से भावांश ग्रहण, पृ. १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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