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मोक्षप्रापक विविध अन्तः क्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता
विविध अन्तः क्रियारूपी सरिताएँ : मोक्षसागर में अवश्य विलीनता
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विभिन्न दुर्भेद्य पर्वतों को काटकर भिन्न-भिन्न टेढ़े-मेढ़े मार्गों से बहती हुई सरिताएँ अन्त में समुद्र में जाकर अवश्य विलीन हो जाती हैं। कुछ छोटी नदियाँ उन महानदियों में मिलकर बाद में देर से समुद्र में मिल जाती हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक जगत् में विभिन्न मोक्षाभिमुख साधकों द्वारा विभिन्न साधनाओं से पूर्वबद्ध कठिन या सुगम कर्मरूपी पर्वतों को अपने अन्तिम एक ही मनुष्य-भव में काटकर, विभिन्न उपायों से समस्त कर्मों, भवों एवं शरीरों का अन्त की हुई, वे अन्तःक्रियारूपी सरिताएँ सर्वकर्मक्षयरूप मोक्षसागर में समा जाती हैं, विलीन हो जाती हैं। उन अन्तः क्रियाओं को करने वाले विभिन्न अन्तकृत् साधक अपनी-अपनी भूमिका में स्थित रहते हुए उसी भव में जन्म-मरणादिरूप संसार (भव) का सदा के लिए अन्त करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परम शुद्ध परमात्मा बनकर मोक्षधाम में पधार जाते हैं; जहाँ उनके कोई नाम, रूप, शरीर, गति, जाति, मोह, माया, कर्म, कर्म के कारणभूत राग, द्वेष, मोह, कषायादि विभाव-विकार आदि शेष नहीं रहते। अन्तःक्रिया से सर्वकर्ममुक्त सिद्ध परमात्मा बन जाने पर वहाँ कोई भी असमानता, विसदृशता, भिन्नता या पृथकरूपता नहीं रहती । वहाँ सब आत्म-स्वरूपमात्र रहते हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख, अनन्त आत्म-शक्ति उन्हें प्राप्त हो जाती है। वे कर्मों, कषायों, राग-द्वेषादि विभावों-विकारों को सदा-सदा के लिए तिलांजलि देकर अपने आत्म-गुणों में रमण करते हैं, अपने शुद्ध आत्म-स्वभाव में, आत्म-स्वरूप में स्थित हो जाते हैं। 'भगवतीसूत्र वृत्ति' में अन्तःक्रिया का यही अर्थ किया गया है - "कर्मों का (जन्म-मरणादि एवं शरीरादि के कारणभूत कर्मों का सर्वथा ) अन्त (नाश ) करने वाली क्रिया अन्तःक्रिया है। अर्थात् सम्पूर्ण कर्मक्षयरूप मोक्ष की प्राप्ति ही वस्तुतः अन्तः क्रिया है ।"१
१. कर्मान्तस्य क्रिया - आत्मक्रिया कृत्स्न-कर्म-क्षय-लक्षणा ।
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- भगवतीसूत्र, श. २, उ. २ टीका
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