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संलेखना - संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ४२५
सुदर्शन श्रमणोपासक ने सागारी संथारे का आदर्श प्रस्तुत किया राजगृह निवासी सुदर्शन श्रमणोपासक ने नगर के बाहर गुणशीलक उद्यान में भगवान महावीर का पदार्पण सुना और अर्जुनमाली का भयंकर आतंक छाया हुआ है, यह भी जाना फिर भी दृढ़ निश्चयी वीर सुदर्शन मृत्यु से न डरकर भगवान के दर्शनार्थ नगर के बाहर निकल पड़ा। किन्तु नर-हत्या के लिए उद्यत अर्जुन को साक्षात् मृत्यु के रूप में सामने आता देखकर सुदर्शन वहीं एक स्वच्छ स्थान पर स्थिर होकर भगवान महावीर को वन्दन करके पूर्वगृहीत व्रतों का स्मरण करता है, उनकी शुद्धि करता है और फिर आपत्ति पर्यन्त चारों आहार तथा अठारह पापस्थान एवं शरीर आदि का त्याग करता है । वह ऐसा आगार (छूट) रखता है“यदि मैं इस उपसगं से मुक्त हो जाऊँ तो मुझे आहार आदि का ग्रहण करना कल्पता है। यदि उपसर्ग से मुक्त नहीं होऊँ तो मुझे यावज्जीवन के लिए आहार आदि का यह प्रत्याख्यान है ।" सुदर्शन का उपसर्ग टल गया। उसने सागारी संथारे का पारणा किया। इस स्वल्पकालिक सागारी प्रतिमा (संथारे) में भी साधक शरीर, प्राण तथा शरीर-सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पर - पदार्थों के मोह से मुक्त होकर मृत्यु से निर्भय निष्कम्प रहता हुआ धर्मध्यान में स्थित होकर आत्म - लक्ष्यी बनता है । ' पण्डितमरण या संथारे का साधक मृत्यु को मित्र मानकर उसका स्वागत करता है । वह अपने जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता रहता है । उसका मन इससे स्फटिकधत् निर्मल हो जाता है।
सागरी संथारे का दूसरा प्रकार : संधारा पोरसी
यह अनुभव सिद्ध बात है कि सोते समय जब मानव की चेतना - शक्ति भी सो जाली है, शरीर भी निश्चेष्ट हो जाता है, उस समय व्यक्ति होश में नहीं रहता । यह ‘निद्रा’ एक प्रकार से अल्पकालिक मृत्यु ही है । उस समय साधक अपनी रक्षा का ज़रा भी प्रयास नहीं कर सकता। इसलिए जैनाचार्यों ने प्रतिदिन रात्रि में सोते समय सागारी संथारा करने का विधान किया है, जिसे संथारा - पोरसी कहा जाता है। सोने 'के पश्चात् पता नहीं प्रातःकाल व्यक्ति उठ सकेगा या नहीं ? इसीलिए साधक को प्रतिक्षण जीवन और मरण से सावधान रहने का निर्देश दिया गया है। जीने के मोह की प्रबलता से मृत्यु को न भूला जाये उसे भी प्रतिक्षण याद रखा जाये। ममत्वभाव से हटकर समत्व में रमण किया जाये । संथारा - पोरसी से एक विशेष
१. (क) 'अन्तकृद्दशांग, वर्ग ६, अ. ३
(ख) 'जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६९६
(ग) जइ णं एत्तो उवसग्गाओ मुच्चिस्सामि तो मे कप्पइ परित्तए ।
अहण्णं एत्तो उवसग्गाओ न मुच्चिस्सामि तो मे तहा पच्चक्खाए ॥
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- अन्तकृद्दशा में सुदर्शन श्रमणोपासक का अधिकार, वर्ग-६, अ. ३
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