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ॐ ४१२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
महज अन्ध-विश्वास का भयंकर परिणाम है। अमुक स्थान पर मरने से या अमुक का नाम लेकर मरने से स्वर्ग या मोक्ष मिल जायेगा, इस प्रकार की अन्ध-वासना से प्राण-त्याग करने का कोई (कर्मक्षयरूप) फल नहीं है, ये एक प्रकार से आत्महत्याएँ ही हैं। फिर वीतरागता के उपासक जैनधर्मी का ध्येय उसके धर्मतत्त्व ज्ञान के अनुसार पदार्पण या पर-प्रसन्नता नहीं है, अपितु आत्म-संशुद्धि मात्र है, जो किसी देव को खुश करने हेतु प्राणोत्सर्ग से या मूढ़तापूर्वक जीवन का अन्त कर देने से नहीं होती। जैनधर्म के साहित्य में इस तरह से किये जाने वाले प्राणनाश का निषेध है, जो किसी ऐहिक या पारलौकिक सम्पत्ति की इच्छा से, कामिनी की कामना से, भोगोपभोगों की वांछा से, पत्नी द्वारा मृत पति-मिलन के अन्ध-विश्वास से, इह-पारलौकिक किसी भी स्वार्थपूर्ति की लालसा से या अन्य लौकिक अभ्युदय की वांछा से, प्रमाद या आसक्तिपूर्वक धर्म भ्रम की बुद्धि से आत्म-वध को हिंसा मानता है, जिसके पीछे प्रमत्त योग का कषायभाव हो, अथवा कोई न कोई आसक्तिभाव-प्रेरक तत्त्व हो। संलेखना-संथारा स्व-हिंसा नहीं, स्व-पर-दया है ___ संलेखना-संथारे में अनशन आदि तप द्वारा जो प्राण-त्याग किया जाता है, उसमें हिंसा का लक्षण घटित नहीं होता, क्योंकि उसके द्वारा स्वेच्छा से, होशहवास में, समझ-बूझपूर्वक, विचारपूर्वक गुरु आदि की साक्षी से प्राण (शरीर) त्याग किया जाता है। हिंसा का लक्षण है-प्रमत्तयोगों से प्राणों का विनाश करना।' जो विचारपूर्वक संलेखना करता है, उसमें राग-द्वेष-मोह आदि तथा कषाय के आवेगरूप परिणाम का अभाव होने से प्रमत्तयोग नहीं होता। बल्कि निर्मोहत्व और वीतरागत्व की साधना में सिद्धि की भावना से यह व्रत निष्पन्न होता है। इस भावना की सिद्धि के कारण ही यह पूर्णता को प्राप्त होता है, इसलिए संलेखना-संथारा आत्महत्या नहीं है और न ही स्व-हिंसा है। आत्महत्या तो किसी कषायावेश का परिणाम होता है, जबकि संलेखना त्याग और स्व-पर-दया का परिणाम है। जब अपने जीवन की कोई उपयोगिता नहीं रह गई हो, दूसरों को व्यर्थ ही कष्ट उठाना पड़ता हो, तब संलेखना-संथारा द्वारा यावज्जीव अनशन द्वारा शरीर-त्याग करना दूसरों पर दया है, अपनी आत्मा की भी दया है। संलेखना-संथारा मृत्यु को अमरता में बदलने के लिए किया जाता है
सबसे विशिष्ट बात यह है कि संलेखना-संथारा मृत्यु के लिए नहीं किया जाता, संथारा करने वाले का लक्ष्य मृत्यु नहीं होता, अपितु आती हुई सहज मृत्यु १. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू. ८ २. (क) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६४१
(ख) 'दर्शन और चिन्तन' (स्व. पं. सुखलाल जी) से भाव ग्रहण
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