SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ ३९६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * गहरी छाप अन्तर में अंकित हो जाती है। उस कर्म के उदय से जीव बार-बार जन्म-मरण के नाना दुःखों को भोगता रहता है। ऐसी असमाधिपूर्वक मृत्यु पाने वाले जीव को मोहकर्म के उद्रेकवश देव-गुरु-धर्म के प्रति आस्था या श्रद्धा नहीं होती। इसीलिए तीर्थंकर आदि ज्ञानी पुरुषों ने पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय करने के लिए उन कर्मों का फल समभाव से, शान्ति से भोगकर समाधिभाव से देह को छोड़ने की उत्तम शिक्षा दी है। आत्महत्या करने से कर्मों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। प्रत्युत कषायभाव की तीव्रता से नये चिकने कर्म बँधते हैं, जिनके फल अवश्य भोगने पड़ते हैं। कदाचित् किसी जीव को अकृत्य करने का पश्चात्ताप होता है, वह प्रभु से क्षमायाचना करता है, सब जीवों को भी खपाता है, पूर्वकृत किसी पुण्योदय से सच्ची श्रद्धा करता है। ऐसा करने से नया कर्मबन्ध शिथिल हो जाता है और देहान्त के बाद उसे देवगति प्राप्त होनी सम्भव है। परन्तु इस प्रकार के आकस्मिक समाधिमरण के लिए भी पहले से तैयारी करनी अनिवार्य है। स्वेच्छा से मरण का दूसरा प्रकार : संलेखना-संथारा : स्वरूप स्वेच्छा से मरण के दूसरे प्रकार में संलेखना-संथारा आता है। संलेखना द्वारा मृत्यु का समाधिपूर्वक वरण किया जाता है। संलेखना का अर्थ है-“जिस तपोविशेष या धर्मक्रिया आदि से शरीर, कषाय आदि का संलेखन, = अपकर्षण किया जाये अथवा आगमोक्त विधि से शरीर आदि को कुश किया जाये। आचार्य पूज्यपाद ने संलेखना की परिभाषा की है-“सम्यक् प्रकार से काया और कषाय का लेखन (कृश) करना संलेखना है। अर्थात् बाह्य संलेखना शरीर की और आभ्यन्तर संलेखना कषायों की क्रूरता तथा काय और कषायों को पुष्ट करने वाले साधनों को उत्तरोत्तर घटाते हुए भलीभाँति लेखन (कश) करना संलेखना है। आशय यह है कि पूर्वोक्त उपसर्गादि-जनित आपत्कालीन प्रसंगों में संलेखना करने का समय नहीं रहता, अतः कदलीघात की तरह एकदम नहीं, किन्तु दुर्भिक्ष आदि या रोगादि उपस्थित होने पर धर्मरक्षार्थ अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग करके जीवन-मरण की आशा (आशंसा) से रहित होकर शरीर एवं कषायों को क्रमशः कृश करते हुए देहोत्सर्ग करना संलेखना है।" .. __‘पंचास्तिकाय' में द्रव्य-भाव-संलेखना का सुन्दर लक्षण दिया गया है“आत्म-संस्कार के अनन्तर उसके लिए ही क्रोधादि कषायरहित अनन्त ज्ञानादि गुण लक्षण परमात्म-पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों को कुश करना (घटाना) भाव-संलेखना है और उस भाव-संलेखना के लिए कायक्लेशरूप अनुष्ठान १. 'समाधिमरण' (गुजराती) से भाव ग्रहण, पृ. २१-३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy