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ॐ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ® ३८५ *
इसीलिए समाधिमरण-साधक यह भलीभाँति जानता-मानता है कि मृत्यु का कोई विश्वास नहीं है कि वह कब, किस क्षण आ जाय? इसलिए वह हर समय सावधान और जाग्रत रहता है। काल पहले से ही चेतावनी या सूचना दिये बिना अकस्मात् आ धमकता है। ज्ञानी पुरुषों के सिवाय प्रायः इस बात का निश्चित ज्ञान पहले से सर्वसाधारण को नहीं होता कि मृत्यु कब, किस दिन और किस घड़ी में आएगी? इसलिए वह बुढ़ापे, रुग्णता, अशक्ति या अमुक अवस्था के भरोसे निश्चिन्त होकर नहीं बैठ जाता कि अभी तो मृत्यु के कोई लक्षण नहीं हैं। यह तो प्रायः सबका प्रत्यक्ष अनुभव भी है कि अपने देखते-देखते स्वस्थ, बलिष्ठ, जवान
और होनहार व्यक्ति भी मौत के मुँह में चले गये हैं। यही कारण है कि समाधिमरण के साधक पहले से ही सतर्क रहते हैं। इसीलिए विचारक एवं आराधक साधक पहले से ही जाग्रत और संतर्क होकर शरीर और शरीर से सम्बन्धित जड़-चेतन पदार्थों के प्रति मोह-ममता से रहित होने का सतत प्रयत्न करते हैं। वे अपना अधिकांश समय आत्म-चिन्तन, आत्म-निरीक्षण, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि एवं आत्म-शुद्धि करने में बिताते हैं।'
_ मृत्यु की बेला में कठोर परीक्षा में कौन सफल, कौन असफल ?
जीवन की अन्तिम घड़ी में जब आत्मा शरीर से विदाई ले रहा हो, तब शरीर में आत्म-बुद्धि छूट जाए, समता और शान्ति सुरक्षित रहे तो समझना चाहिए कि मृत्यु की कठोर परीक्षा में साधक सफल हुआ है। किन्तु यदि शरीर छूटते समय आत्मा का उपयोग देह-मोहवश देह में चिपटा रहे, देह में उसकी आत्म-बुद्धि रहे तो समझ लो इस परीक्षा में वह असफल हुआ है। इस प्रकार प्रत्येक बार मृत्यु के समय जीव बाजी हारता चला गया। मानव देह की श्रेष्ठता उसकी समझ में नहीं आई। .
समाधिमरण की प्रबल कसौटी : मृत्यु वस्तुतः मृत्यु साधक के लिए जबर्दस्त कसौटी है। इसका यह अर्थ नहीं है कि • मृत्यु के समय ही असातावेदनीय कर्म के उदयवश भयंकर दुःख, कष्ट, वेदना या पीड़ा सहन करनी पड़ती है, कई बार जीवितकाल में भी भयंकर कष्ट असातावेदनीय के उदय से भोगने पड़ते हैं। जीवितकाल में भी वे उसके लिए कसौटी के साधन हैं, मृत्युकाल में तो विशेष रूप से जागृति के प्रेरक हैं। मृत्यु की घड़ियों में आत्मा कितनी शान्ति और समता रख सकता है? वह धर्मभावना का उस समय कितना सहारा लेता है? परमात्मा या शुद्ध आत्म-देव का कैसा और
१. (क) आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. १
(ख) एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठपहे मुणी। (ग) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६२३
___ -आचारांग, अ. ३, उ. २ ...
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