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ॐ मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार 0 ३५३ :
तथा भगवदुक्त तत्त्वों के प्रति जव श्रद्धा, भक्ति, दृष्टि, दर्शन, आस्था शुद्ध और यम्यक् हो जाती है तो वह किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का हो, अनेकान्तदृष्टि से, समन्वयबुद्धि, सत्यग्राही दृष्टि एक ही धर्म के विभिन्न उप-सम्प्रदायों में परस्पर पक्षपात, शंका, कांक्षा, विचिकित्मा और मूढ़दृष्टि से सत्य को न देखकर निःशंकतादि की दृष्टि से देखेगा। शंका के यहाँ दो अर्थ हैं--सन्देह और भय। इसी प्रकार कांक्षा के भी दो अर्थ सम्भव हैं-फलाकांक्षा और अन्य धर्म दर्शन के आडम्बरों को देखकर उसकी ओर झुक जाने की वांछा करना। तत्त्वदृष्टि से गुणग्रहण करना दोप नहीं, परन्तु आडम्बर, सुविधा या भौतिक लालसा की दृष्टि से झुकना दोप है। विचिकित्सा के भी दो अर्थ हैं-फल में सन्देह करना या साध-संतों के प्रति या देव-गुरु-धर्म के प्रति जुगुप्सा या घृणा व्यक्त करना, मूढ़दृष्टि का अर्थ हैसत्यग्राही सम्यक्त्वी का देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता, लोकमूढ़ता आदि में ग्रस्त हो जाना। मूढ़दृष्टि वाला अन्ध-श्रद्धा, मिथ्या दृष्टिकोण एवं कुरूढ़ियों का शिकार हो जाता है। अतः ये चार दोप सम्यग्दर्शन के आचार को दूषित करने वाले होने से त्याज्य हैं। शेष चार अंग सम्यग्दर्शन को व्यावहारिक और सामाजिक दृष्टि से पुष्ट करने वाले हैं। उन्हें अपनाना अनिवार्य है। - निःशंकित आदि सम्यग्दर्शन के ८ अंगों के विषय में 'सम्यक्त्व-संवर' के निवन्ध में हम विशद रूप से लिख आये हैं।।
निश्चय दर्शनाचार का लक्षण - निश्चय दर्शनाचार का लक्षण ‘परमात्मप्रकाश' में इस प्रकार बताया गया है-"जो चिदानन्द रूप शुद्ध आत्म-तत्त्व है, वही सब प्रकार से आराधन योग्य है, उससे भिन्न जो पर-वस्तु हैं, वे सब त्याज्य हैं। इस प्रकार की दृढ़ प्रतीति या विचलतारहितनिर्मल-अवगाढ़ परम श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, उसका जो आचरण-तत्स्वरूप-परिणमन, दर्शनाचार है।" 'द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-"(समस्त पर-द्रव्यों से भिन्न) परम चैतन्य विलासरूप लक्षण वाली निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन में जो आचरण यानी परिणमन है, वह निश्चय दर्शनाचार है।"" .
व्यवहारदृष्टि से चारित्राचार : लक्षण और भेद ___ सम्यक्चारित्र की शुद्धि के लिए चारित्राचार (व्यवहारदृष्टि से) का कथन किया गया है। चारित्राचार का व्यवहारनय की दृष्टि से अर्थ है-प्रणिधानयोग (शुभ
१. (क) सच्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मतत्त्वं तदेव सर्वप्रकारोपादेयभूतं, तस्माच्च यदन्यत्
तद्धेयम् इति। चल-मलिनावगाढ़-रहितत्वेन निश्चय-श्रद्धानबुद्धिः सम्यक्त्वं, तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचारः।
-परमात्मप्रकाश टीका ७/१३/३ (ख) परमचैतन्यविलास-लक्षणः स्वशुद्धात्मैवापादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चय-दर्शनाचारः।
-द्रव्यसंग्रह टीका ५२/२१८
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