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ॐ मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार ॐ ३४५ *
___ इसी प्रकार 'वेदान्तदर्शन'-"सर्वं खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन।"१-यह सब एकमात्र ब्रह्म है, नानाविध दिखने वाले कुछ नहीं हैं-जगत् मिथ्या है। अतः एकमात्र ब्रह्मज्ञान कर लेने से ही मुक्ति हो जायेगी। उधर ‘सांख्यदर्शन' का भी यह मन्तव्य है
"पंचविंशति-तत्त्वज्ञो यत्र कुत्राश्रमे रतः।
जटी मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते, नात्र संशयः॥" अर्थात् वैदिकधर्म-मान्य चारों आश्रमों में से किसी भी आश्रम में रत हो, वह चाहे जटाधारी हो, मुण्डित हो, चाहे शिखाधारी हो, अगर (सांख्य-योगदर्शन-मान्य) पच्चीस तत्त्वों का ज्ञाता है तो निःसन्देह वह मुक्त हो जाता है। ___'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी कहा है-“इस (दार्शनिक) जगत में भी कतिपय व्यक्ति मानते हैं कि पाप का प्रत्याख्यान (त्याग) न करके सिर्फ आर्यधर्म को जानकर ही सर्वदुःखों से मुक्त हो जाता है।" दुर्योधन भी इसी प्रकार कहता था-मैं धर्म के तत्त्व को जानता हूँ परन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है, अधर्म को भी जानता हूँ, किन्तु उससे मेरी निवृत्ति नहीं है। किसी हृदयस्थ देव द्वारा जैसे भी प्रेरित या नियुक्त किया जाता हूँ, वैसे करता हूँ। अतः केवल जान लेने मात्र से कर्मों से निवृत्ति नहीं हो सकती, उक्त उपादेयरूप ज्ञात वस्तु के प्रति श्रद्धा, विनय, आचरण तथा तपश्चरण भी आवश्यक है। तभी ज्ञानधर्म सर्वांगीणरूप में जीवन में उतर पाता है। जैसा कि 'स्थानांगसूत्र' में कहा है-"भगवान ने त्रिविधरूप से धर्म को स्वाख्यात कहा है-सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना, सम्यक् प्रकार से उसके अर्थ
और तत्त्व का ध्यान (चिन्तन) करना और उसके लिए सम्यक्तप करना। जब धर्म सम्यक् प्रकार से अधीत, सम्यक्ध्यात और सम्यक्तपश्चरित हो जाता है, तभी भगवान ने उसे स्वाख्यातधर्म कहा है।" यही आचारधर्म का रहस्य है। इससे स्पष्ट है कि केवल ज्ञानाचार से मोक्षोपाय नहीं होता, बल्कि कोरे ज्ञान से अहंकार और दम्भ बढ़ना संभव है। अतः ज्ञानाचार के अतिरिक्त अन्य चार आचारों का परिपालन करना भी सर्वकर्ममुक्ति के लिए अनिवार्य है।
१.. वेदान्तसूत्र २. 'साख्यदर्शन' टीका में उद्धृत श्लोक ३. (क) इहमेके उ मन्नंति अपच्चक्खाय पावगं। आयरियं विदित्ता णं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ।
-उत्तरा. ६/९ (ख) जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनाऽपि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।। -महाभारत ४. तिविहे भगवया धम्मे पण्णत्ते, तं.-सुअहिज्झिए, सुज्झाइए, सुतवस्सिए। जया अहिज्झियं
भवइ, जया सुज्झाइयं भवइ तया सुतवस्सियं भवइ। से सुअहिज्झिए, सुज्झाइए सुतवस्सिए सुयक्खाएणं भगवया धम्मे पन्नत्ते।
-स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. ४, सू. २७९
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