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________________ ॐ ३४० * कर्मविज्ञान : भाग ८ . केवल पाठ बोलना आचरणहीन तोतारटन है एक तोते को रटा दिया गया कि बिल्ली आये तो बचकर रहना। इसे वह रटता रहा, न तो उस वाक्य का मतलब समझता था और न ही उसका जीवन में प्रयोग करना जानता था। एक दिन पिंजरा खुला था, वह तोता वोल रहा था'बिल्ली आये तो बचकर रहना।' मौका देखकर विल्ली आ गई और उसने तोते को दबोच लिया। आचारधर्म : सिर्फ उपासनात्मक न होकर जीवन में आचरणात्मक हो ... इसी प्रकार वर्तमान युग के कतिपय साधक सामायिक, प्रतिक्रमण, उपवास आदि बाह्य तप, नाम-स्मरण, स्तोत्र-पाठ, नवकारमंत्र-जाप निर्ग्रन्थ साधु-साध्वियों के दर्शन, भगवद्-भक्ति, प्रवचन-श्रवण आदि उपासनात्मक धर्म के पवित्र अंगों की वर्षों से धर्मक्रिया के रूप में प्रवृत्ति करते हैं। परन्तु एक तो उन सामायिक आदि उपासनात्मक धर्मक्रियाओं के अर्थों को सम्यक रूप से नहीं समझ पाते, फिर सभी धर्मक्रियाओं का कषायमुक्ति, राग-द्वेषादि विकारों से, कर्मों से छुटकारा पाने का तथा वीतरागता-प्राप्ति का जो उद्देश्य था, उसे प्रायः भूल जाते हैं, इसके अतिरिक्त सामायिक आदि पवित्र धर्मक्रियाओं को अमुक क्षेत्र (उपाश्रय, स्थानक, मन्दिर, मसजिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि), अमुक काल, अमुक पंथ-सम्प्रदाय की परम्परा, अमुक जाति या व्यक्ति-विशेष के साथ बाँध देते हैं। फलतः सामायिक आदि का जो उद्देश्य था, वह उपाश्रय आदि अमुक क्षेत्र, प्रातः-सायं या किसी पर्व-तिथि आदि काल अथवा अमुक साधु-साध्वी की उपस्थिति तक या अमुक पंथ-सम्प्रदाय की अथवा जाति की परम्परा तक ही धर्म सीमित हो जाता है उससे बाहर जाते ही घर, दुकान, अमुक समय, अमुक व्यक्ति, अमुक स्थान आदि में वह समता आदि धर्म छूमंतर हो जाता है। जो धर्म जीवनव्यापी था और आचरण में हर समय, हर क्षेत्र और हर व्यक्ति के लिए जीवन में उतारने योग्य था, उस धर्म को आचरणात्मक न रहने का केवल उपासनात्मक और परलोकानुगामी अथवा वृद्धावस्था में आचरणीय बना दिया। इसका मतलब यह नहीं है कि सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध आदि उपासनात्मक धर्म न करना। करना है, परन्तु उस उपासनात्मक धर्म का प्रभाव आत्म-विकासलक्षी, सर्वक्षेत्र-सर्वकालव्यापी और सर्वत्र सम्यक् रूप से आचरणात्मक होना चाहिए। तभी वह सम्यक्आचार धर्म का रूप ले सकेगा और उसके सम्यक् एवं निरतिचार-पालन से कर्ममुक्ति, राग-द्वेषमुक्ति, वीतरागता-प्राप्ति, कषायमुक्ति तथा सर्वदुःखान्तकारिता हो सकेगी। इसलिए सामायिक, पौषध आदि प्रत्येक धर्मक्रिया के साथ अनाचरणीय बातों से दूर रहकर उन्हें सम्यक् रूप से आचरित करने का सन्देश आगमों में दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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