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ॐ १६ * कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
चाहे तो कर्मोदय होने पर भी समभावपूर्वक उसे भोगकर उक्त कर्मों की निर्जरा की जा सकती है। स्वेच्छा से और अनिच्छा से कर्मफल भोगने का अन्तर
निर्जरा के सम्बन्ध में एक तथ्य और समझ लेना चाहिए। पूर्वकृत कर्म के उदय में आने पर उसका फल मन के प्रतिकूल होने पर भी अवश्यमेव भोगना पड़ता है, किन्तु एक व्यक्ति तो रो-रोकर, बिना उत्साह के भोगता है, जबकि दूसरा विवेकशील व्यक्ति उसी प्रतिकूल फल को हँसते-हँसते, प्रसन्नतापूर्वक समभाव से यह सोचकर भोगता है कि इसे समभावपूर्वक भोगने से शीघ्र ही क्षय हो जायेगा,. जबकि रोते-झींकते, निमित्तों को कोसते हुए भोगने से वे कर्म कई वर्षों और कभी-कभी कई जन्मों में जाकर क्षीण होते हैं। समभावपूर्वक भोगने से नये कर्म का बन्ध रुक जाता है अर्थात् संवर हो जाता है और सकामनिर्जरा भी होती है। जबकि विवशतावश विषमभाव से भोगने पर काफी अर्से के बाद उन कर्मों की निर्जरा तो होती है, किन्तु वह होती है-अकामनिर्जरा। फिर उसे रोते-पीटते अनिच्छा से भोगने से नये अशुभ कर्मों का भी बन्ध हो जाता है। वह व्यक्ति संवर और सकामनिर्जरा से भी वंचित हो जाता है। इसी तथ्य को एक आचार्य ने स्पष्ट किया है
“स्वकृत-परिणामानां दुर्नयानां विपाकः, पुनरपि सहनीयोऽत्र ते निर्गुणस्य। स्वयमनुभवताऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो,
भव-शत-गति-हेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते॥" -स्वकृत अशुभ (दुर्नीतियुक्त) कर्मों के बन्ध का विपाक (फल) अभी खेदरहित होकर (प्रसन्नतापूर्वक) स्वेच्छा से सहन नहीं करोगे तो आखिर कभी न कभी सहन करना (भोगना) ही पड़ेगा। यदि उस अशुभ कर्म का फल स्वेच्छा से (उत्साहपूर्वक) भोग लोगे तो उस दुःखजनक कर्म से शीघ्र ही छुटकारा हो जायेगा। इसके विपरीत यदि अनिच्छा से (खेद और विवशतापूर्वक) भोगोगे तो वह सौ भवों में गमन (भ्रमण) का कारण हो जायेगा।
स्पष्ट है, स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक पूर्वकृत अशुभ कर्मबन्ध का फल (उस कर्म के उदय में आने पर) भोगने से उस कर्म से शीघ्र ही मुक्ति हो जाती है, संवर और सकामनिर्जरा का भी लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाता है। अतः अशुभ कर्म का फल स्वेच्छा से, समभावपूर्वक भोग लेना ही संवर और सकामनिर्जरा की साधना है, जो इनके साधक को सुखानुभूति, निर्भयता और सहिष्णुता प्रदान करती है।
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