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________________ मोक्ष अवश्यम्भावी : किनको और कब ? ३१५ आहार शरीरादि में दृढ़ संयमी, ब्रह्मचर्यनिष्ठ जुट्ठल श्रावक इसी तरह ‘आवश्यककथा' में जुट्टल श्रावक का वर्णन है जो भगवान नेमिनाथ के धर्म-शासनकाल में भद्दिलपुर निवासी धनाढ्य गृहस्थ था । भगवान के उपदेश से उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया। उसने आहार में चावल, चने की दाल और पानी, इन सिर्फ तीन द्रव्यों के उपरान्त सभी खाद्य पेयों का त्याग कर दिया। आभूषणों में सिर्फ एक मुद्रिका रखी तथा पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करके बेले-तेले आदि की तपश्चर्या करके अपनी साधना में लीन रहने लगा। उसकी पत्नियों ने उसकी शारीरिक दुर्बलता, भोगपराङ्पुरस्ता तथा साधना-लीनता देखकर अपनी ओर आकर्षित करने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वह जरा भी विचलित न हुआ । अवधिज्ञान से जब उसने जाना कि पौषधशाला में अग्नि के उपसर्ग में मेरी मृत्यु होगी, तब वह संलेखना - संथारा करके समाधिस्थ होकर बैठ गया। दो महीने के अनशनपूर्वक जुट्ठल श्रावक अग्नि के उपसर्ग से समाधिपूर्वक मरकर ईशान देवलोक में गया। वहाँ से वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर मोक्ष जाएगा । ' अकामनिर्जरा और बालतप से देव भव मिल सकता है अकामनिर्जरा और बालतप से विराधक होकर देवगति पाने के तो औपपातिकसूत्र में तथा कप्पवडंसिया, पुष्फिया और पुप्फचूलिया में अनेक तापसों, वानप्रस्थिकों, अंगच्छेदकों, द्विद्रव्यभोगियों तथा सुकुमालि का आदि विराधिका साध्वियों के अनेक उदाहरण हैं। उनकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। यहाँ तो उन साधक-साधिकाओं की चर्चा की जा रही है, जिनका भविष्य में मोक्ष अवश्यम्भावी है, निश्चित है। प्रदेशी राजा भी श्रावकव्रती बनकर समाधिमरणपूर्वक सूर्याभदेव बना 'राजप्रश्नीयसूत्र' में प्रदेशी राजा का जीवनवृत्त अंकित है। पहले तो वह नास्तिक, क्रूर और धर्मविमुख था, किन्तु केशीश्रमण मुनिवर के सत्संग से उसने • श्रावकव्रत अंगीकार किया । श्रमणोपासक बनने के पश्चात् वह अपने धर्मध्यान में ही रत रहने लगा। किन्तु उसकी रानी राजा को भोगासक्त बनाने के प्रयत्न में विफल हुई, तब तुच्छ स्वार्थ एवं रोषवश राजा को विष - मिश्रित भोजन दे दिया। परन्तु प्रदेशी राजा ने न तो रानी पर द्वेष किया और न ही अपने शरीरादि पर मूर्च्छा की, समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करने से वह सौधर्म देवलोक में सूर्याभदेव बना । वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वह महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य - जन्म पाकर संयम-साधना १. देखें - आवश्यककथा तथा जैनकथा कोष में जुट्ठल श्रावक का वृत्तान्त २. देखें- औपपातिकसूत्र में अकामनिर्जरा और वालतप के साधकों का परिचय, सू. ४-६, ८-१०, १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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