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________________ * ३१२ कर्मविज्ञान : भाग ८ फरमाया-अठारह पापस्थानों के सेवन से जीव गुरुत्व (कर्मों से भारीपन ) को प्राप्त करते हैं और (इसके विपरीत) इन्हीं अठारह पापस्थानों से विरत (निवृत्त) होने पर जीव कर्मों से हल्के हो जाते हैं। वे संसार को परित्त = परिमित कर लेते हैं और एक दिन संसाराटवी को पार कर जाते हैं--मोक्ष गति को प्राप्त कर लेते हैं। निश्चयदृष्टि से मोक्ष की अवश्यम्भाविता का आश्वासक सूत्र इसी दृष्टि से 'भगवतीसूत्र' में 'चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए' आदि ९ पदों द्वारा भी यह सूचित किया गया है कि जो सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष के लिए चल पड़ा है, वह चला; जो उदीरा जा रहा है, वह उदीर्ण हुआ इत्यादि चारों क्रियाएँ ( चलन, उदीरणा, वेदना और प्रहाण) तुल्यकाल ( अन्तर्मुहूर्त-स्थितिक) की अपेक्षा से एकार्थक हैं तथा छेदन ( स्थिति-बन्धापेक्षया), भेदन ( अनुभागबन्धापेक्षया), दहन ( प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से), मरण ( आयुष्यकर्म की अपेक्षा से) और निर्जरण ( सर्वकर्मों की अपेक्षा से) भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक़ होने से सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष के प्रकटीकरण में निश्चयनय की दृष्टि से सहायक हैं, मुमुक्षु के लिए मोक्षपद - प्राप्ति के लिए आश्वासक हैं । ' जैनागमों में संयम दो प्रकार का बताया - वीतरागसंयम और सरागसंयम । वीतरागसंयम से सम्पन्न साधक को मोक्ष उसी भव में या दो भवों में निश्चित है, परन्तु सरागसंयम में जो विराधक हैं, उन्हें बहुत ही भवभ्रमण करना पड़ता है, किन्तु जो सरागसंयमी आराधक हैं, उन्हें देव भव के पश्चात् दूसरे भव में मुक्ति अवश्यम्भावी है, इसका उल्लेख औपपातिकसूत्र, अनुत्तरौपपातिक आदि आगमों में यत्र-तत्र मिलता है। इस प्रकरण में हम क्रमशः उन पाठों के भावार्थ संक्षेप में उद्धृत करके प्रस्तुत करते हैं। 'स्थानांगसूत्र' एवं 'तत्त्वार्थसूत्र' में चार कारणों से देव-सम्बन्धी आयुष्यकर्म का बन्ध बताया है - (9) सरागसंयम से, (२) संयमासंयम से, (३) अंकामनिर्जरा से, और (४) बालतपसे ( अज्ञानपूर्वक तपश्चरण से ) । सरागसंयम-संयम ग्रहण कर लेने पर जब तक राग का अंश शेष रहता है तब तक वह संयम सरागसंयम है। संयमासंयम का अभिप्राय है - कुछ संयम, कुछ असंयम । सामान्यतया इसके अन्तर्गत देशविरति श्रावक आते हैं। यद्यपि इन दोनों में सम्यक्त्व गर्भित है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना ये दोनों हो ही नहीं सकते। फिर भी दिगम्बर परम्परा में सम्यक्त्वी को अलग से देवायुबन्ध के कारणों में गिनाया है। अकामनिर्जरा का अर्थ है - विवशता या पराधीनता से, अनिच्छा से, बिना उद्देश्य के, कर्मक्षय के लक्ष्य के बिना ही कष्ट सहना, भूख-प्यास आदि सहना । बालतप का अर्थ है - अज्ञानपूर्वक तप करना । जिस १. भगवती, श. ५, उ. १, सू. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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