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ॐ ३०८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
सावद्ययोगों से विरति प्राप्त होती है, चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि, वन्दना से नीच गोत्रकर्म क्षय करता है। प्रतिक्रमण से व्रतों में हुए छिद्रों का निवारण करके साधक आम्रवों का निरोध और शुद्ध चारित्र-पालन कर पाता है, कायोत्सर्ग से अतीत और वर्तमान के पापों का उच्छेद करके शान्त, हृदय व हलका तथा प्रशस्त ध्यानरत होकर सुखपूर्वक विचरण करता है और प्रत्याख्यान से आम्रवद्वारों का विभिन्न इच्छाओं का निरोध करता है, जिसके फलस्वरूप जीव सर्वद्रव्यों के प्रति तृष्णारहित एवं शीतीभूत होकर विहरण करता है। ये छह आवश्यक अन्तर्निरीक्षण-परीक्षण और आत्म-परिष्कार के लिए अत्यावश्यक हैं।
निष्कर्ष यह है कि छह आवश्यकों को तथा मिथ्यात्वादि पंचविध प्रतिक्रमणों को भावपूर्वक करने से साधक शुद्ध आत्मा के तथा वीतराग परमात्मा के अनन्त ज्ञानादि गुणों को शीघ्र ही प्राप्त करके सर्वकर्ममुक्ति की मंजिल पा लेता है। सातवाँ बोल-अन्तिम समय में संलेखना-संथारा सहित पण्डितमरण प्राप्त करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय
जीवनभर की अच्छी-बुरी समस्त प्रवृत्तियों का लेखा-जोखा करके अन्तिम समय में समस्त दुष्प्रवृत्तियों (पापस्थानों) का त्याग करना और मन, वाणी और शरीर को संयम में रखना, शरीर और शरीर से सम्बन्धित समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति ममत्व को मन से हटाकर उसे शुद्ध आत्मा के चिन्तन या परमात्मा के स्मरण में लगाना, आहार तथा अन्य सब उपाधियों का त्याग करके आत्मा को निर्द्वन्द्व एवं निःस्पृह बनाना तथा न तो शीघ्र मृत्यु की और न अधिक जीने की आकांक्षा करे एवं ऐहिक पारलौकिक भोगों, कामनाओं, इच्छाओं, निदानों का त्याग करके हँसते-हँसते आनन्द से मृत्यु का स्वीकार करना पण्डितमरण है, समाधिमरण है, आदर्शमरण है, मरण की कला है।
ऐसा पण्डितमरण सैकड़ों भव-परम्पराओं का अन्त कर देता है। 'स्थानांगसूत्र' में श्रमण निर्ग्रन्थों तथा श्रमणोपासकों के तीन-तीन मनोरथों का विधान है, उनमें दोनों का अन्तिम मनोरथ है-“कब मैं अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर भक्तपान का परित्याग कर पादोपगमन संथारा स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूँगा।" इस मनोरथ को उत्तम मन-वचन-काया से करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ/श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। “कर्मनिर्जरा जब विपुल परिमाण में असंख्यात-गुणितक्रम से होती है, तब महानिर्जरा कहलाती है। महापर्यवसान के चार अर्थ होते हैं-(१) जन्म-मरण का अन्त, (२) कर्मों का अन्त, (३) अपुनर्मरण, और (४) समाधिमरण। समाधिमरण १. 'उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन सहित' (आ. प्र. समिति, ब्यावर), अ. २९, सू. ८-१३ का
विवेचन
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