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________________ * शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र २९५ - भोगजनित ताप पीड़ाकारक : उग्रतप अल्पपीड़ाकारक परिणाम में सुखदायक मोक्षार्थी तप:साधना की उग्रता से डरता नहीं है और न ही वह मोक्ष के समग्र कारणों से युक्त होकर अविचल अनवरत तपःसाधना करने से हिचकिचाता है। पूर्वबद्ध पापकर्मों के कारण अनन्त काल से भवपरम्परा में भटकता हुआ जीव जन्म-जरा-मरण-रोगादि नाना दुःखों, पीड़ाओं और यातनाओं को सहता आया है। इन पापों के तापों को जीव ने अनन्त बार सहा है फिर भी उनसे विरत नहीं हुआ, पाप के ताप से 'तो स्वेच्छा से आत्म-शुद्धि के लक्ष्य से उग्रतप का ताप अधिक नहीं है और न ही मोक्षार्थी को पीड़ाकारक महसूस होता है । पाप के कारण तो नियमतः पीड़ा होती है, होती रहेगी । भोगजनित दुःख और तपोजनित दुःख, दोनों एक सरीखे प्रतीत होते हैं, परन्तु दोनों में काफी अन्तर है । भोग में बल, वीर्य, धन आदि का नाश होने पर क्षय, दया, हृदयरोग आदि दुःसाध्य व्याधियाँ आ घेरती हैं और जिनसे संतप्त होकर व्यक्ति मरण-शरण भी हो जाता है । किन्तु तप से देह, बल आदि का ह्रास हो जाने पर किंचित् पीड़ा होती है, किन्तु कर्मरोग के नष्ट हो जाने और आत्मा के कर्ममलरहित शुद्ध हो जाने से आत्मिक सुख बढ़ जाता है । ऐसी स्थिति में मृत्यु भी आये तो वह संतोषपूर्वक सहर्ष उसका वरण कर लेता है। भूख, प्यास, ज्वर, रोग आदि तो असातावेदनीयजनित दुःख हैं, जिनसे जीव अपना बल हार जाता है, मगर तप में तो भूख, प्यास आदि को स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारने से उस दुःख पर मोक्षार्थी तपोधनी अपने आत्मिक बल से विजय पा लेता है। पूर्वकृत अशुभ कर्मोदयवश व्यक्ति को दूसरों के द्वारा दिये गये अनेक दुःखों, कष्टों और तकलीफों को बरबस सहना पड़ता है । जरा-सी भूल या भयंकर गलती होने पर उसे ताड़न- तर्जन या वध-बन्धन आदि का दण्ड भी मन-मसोसकर भोगना पड़ता है। फिर गृहस्थवास में मनुष्य अपने पुत्र - पत्नी-परिवार आदि के लिए मोहवश अनेक कठिनाइयाँ झेलता है । व्यापार-धन्धे, नौकरी आदि में तो उसे अनेक शारीरिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। उच्च कोटि के साधक भी जिह्वा लोलुपतावश तथा अतिप्रवृत्ति करके यशः कीर्ति, प्रतिष्ठा-प्रशंसा आदि के लिए अनेक प्रकार के दुःखों को आमंत्रण देते हैं। अपने सम्प्रदाय, पंथ, मत, जाति, प्रान्त आदि के मोह में पड़कर धर्म के नाम पर दूसरों से लड़ने-झगड़ने, ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, द्रोह, अहंकार आदि करने में तथा नाना प्रकार की तिकड़मबाजी करने, झूठफरेब करके अपने गुट की जाहोजलाली करने में कई साधक खून-पसीना एक करते रहते हैं। इन सब उखाड़ - पछाड़ों द्वारा अनेक दुःख उठाकर नये अशुभ कर्मबन्ध करने की अपेक्षा सम्यक्त्वपूर्वक समभाव से बाह्य आभ्यन्तर उग्रतप करने में बहुत ही कम कष्ट - पीड़ा महसूस होती है। दुःख तो प्रतिकूल वेदन को कहते हैं । मुमुक्षु आत्मा तपोजनित दुःख को दुःख मानता ही नहीं, वह उस दुःख को अनुकूल वेदता है और फिर स्वेच्छा से उग्रतप करने सकामनिर्जरा, कर्मों से मुक्ति और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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