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________________ २८६ कर्मविज्ञान : भाग ८ सेवा, सहायता, उपकार और सहन करने के बदले उन्हें डराता, धमकाता है, हिंसा करता है। 'मोक्खपुरिसत्थो' में बताया है - बाह्यशक्ति के ४ प्रकारों में जनशक्ति तीन व्यक्तियों के पास होती है– (१) धर्मगुरु, (२) परिवार का प्रमुख, और (३) नेता । धर्मगुरु के पास भक्तदल का, गृहपति के पास स्वजनदल का और नेता के पास अपने-अपने दल का बल होता है। ये तीनों अगर गुण सम्पन्न एवं परोपकारपरायण हों तो अपनी शक्ति का सदुपयोग करते हैं और जिन्हें शक्ति का नशा चढ़ जाता है, वे उन्मार्ग पर चलकर स्व-पर का अहित करते हैं। अपने व्यक्तिगत मानापमान का बदला लेने हेतु वे जनशक्ति के मोह और अहंकार में पड़कर .. असहिष्णु बन जाते हैं, शाप देते हैं या डराते-धमकाते हैं। दवाते - सताते हैं । किन्तु निर्जरापेक्षी व्यक्ति मध्यस्थ होकर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग या बाह्य प्रदर्शन नहीं करते। वे अपनी शक्तियों का गोपन करते हैं, सहिष्णु बनते हैं, प्रतिक्रिया से विरत रहते हैं । इस प्रकार वे संवर और निर्जरा अर्जित कर लेते हैं । (३) धनशक्ति पाकर जो व्यक्ति गर्व और अहंकार नहीं करते, वे धन्ना सेठ के समान नम्र, पुरुषार्थी बनकर संघ, धर्म और साधर्मि जनों की सेवा में धन का सदुपयोग करते हैं। अपनी अवहेलना होने पर भी जाति, समाज, संघ की उन्नति में अग्रसर रहते हैं। (४) जो किसी सत्ता, अधिकार, पद या नेतृत्व आदि के बल के रूप में आधिपत्यशक्ति पाकर सहनशील, गम्भीर और मध्यस्थ बनते हैं, वे संवर और निर्जरा का अनायास ही उपार्जन कर लेते हैं । आभ्यन्तरशक्ति-विद्या, मंत्र, लब्धि, उपलब्धि, सिद्धि, श्रुत, तप और यश; ये आभ्यन्तरशक्तियाँ हैं, जो बड़े-बड़े साधकों को साधना से भ्रष्ट कर देती हैं। विद्यावान् स्खलना को, मंत्रवान् दोष को लब्धिमान् किसी सेवक को,. श्रुतवान् अज्ञान को और तपस्वी अपने से विपरीतता को प्रायः लेशमात्र भी सहन नहीं करते। परन्तु जो आत्मवान् एवं आत्मार्थी होते हैं, जो आत्म-भाव से सहन करते हैं, ये बहुत निर्जरा कर लेते हैं । औदयिकभाव से सुन्दर सशक्त शरीर, यशः कीर्ति, पूज्यभाव आदि तथा अन्य बल प्राप्त होते हैं। उनका कुछ भी माहात्म्य अपने हृदय में धारण न करके स्वछन्दता और इच्छा का प्रबल निरोध करने से तीव्र निर्जरा करे। मेरी शक्ति पर-हित में और अध्यात्म-विकास में लगे, अपने सम्मान, यश या आमोद-प्रमोद में पिछले पृष्ठ का शेष (ख) से आयवले, से णाइवले, से मित्तवले, से पेच्चवले, से देववले, से रायबले, से चोरवले, से अतिहिवले, से किवणवले, से समणवले; इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमादाणं समेहाए भया कज्जति, पाव मोक्खे त्ति मण्णमाणे, अदुवा आसंसाए । - आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. २, पृ. ७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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