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भवविरक्ति (निर्वेद दशा) हो जाती है । मुमुक्षा और निर्वेद (भवविरिक्त) तीव्र होंगे तो जिनप्रज्ञप्त तत्त्व में अनुत्तर धर्मश्रद्धा उत्पन्न होगी ।
ॐ शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र ४ २७५
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मोक्ष की इच्छा के बाह्य हेतु
जिनेन्द्रदेव के दर्शनादि से, सद्गुरुओं की चरणोपासना से और सत्शास्त्रों के सम्यक् श्रवण-मनन-चिन्तन से हृदय में मोक्ष प्राप्ति की पारमार्थिक इच्छा उत्पन्न होती है।
मोक्ष की इच्छा के आभ्यन्तर हेतु
संसार के स्वरूप का अनुप्रेक्षण (चिन्तन) करने से, शरीर के स्वरूप का ( अशुचिमय शरीर का ) अनुप्रेक्षण करने से, आत्मा के एकत्व का अनुचिन्तन करने से, अपनी अशरणता असहायता का चिन्तन करने से और आत्मा के अस्तित्व आदि से लेकर (स्व-स्वरूपावस्थानरूप ) मोक्ष और मोक्षमार्ग (मोक्षोपाय ) तक ६ स्थानों का चिन्तन करने से अन्तःकरण में मोक्ष की इच्छा उत्पन्न होती है।
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संसारानुप्रेक्षा मुमुक्षा का कारण
संसार और मोक्ष, ये दोनों विरोधी तत्त्व हैं। संसार कर्मयुक्त है और मोक्ष कर्ममुक्त है। मुमुक्षु साधक जब यह अनुप्रेक्षा करता है - मैं अनादिकाल से एक भव से दूसरे भव में चक्कर काटता आ रहा हूँ। इतना ही नहीं, मैंने निकृष्टतम भव में नाड़ी के एक स्पन्दन में १७ से अधिक भवों को धारण किया। जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु आदि की अपार वेदनाएँ सहन कीं । तैंतीस सागरोपम जितना दीर्घकालिक भव दुःख, वेदना और पीड़ा में रो-रोकर व्यतीत किया । जिस किसी भी भव में मैं उत्पन्न हुआ, वहाँ सुख-दुःख, हर्ष-शोक, रति- अरति, शुभ-अशुभ आदि अनेक रुचियों वाले द्वन्द्वों- संघर्षों के रूप में मेरा चित्त आकुल-व्याकुल रहा। सुख-दुःखों का वेदन किया। संसार का सुख भी दुःख बीज है, दुःख तो दुःखरूप है ही। इस प्रकार सांसारिक दुःखजनक सुख और दुःखों से भरी नाना स्थितियाँ संसार में भोगीं। फिर बचपन, जवानी और बुढ़ापा, तीनों अवस्थाएँ भी विवेकहीन होकर बिताईं या बिताता रहा । निपट स्वार्थ भाव से दूसरों के साथ व्यवहार किया, . जिसका प्रतिफल भी दूसरों से तिरस्कार, उपेक्षा और अनचाहत के रूप में मिला। सम्पन्न और विपन्न दोनों ही अवस्थाओं में मूढ़ बन विषय - सुखों की चाह में पीड़ित रहा। कदाचित् अनुकूल विषय मिले तो भी अतृप्ति, आकुलता और उत्तेजना बनी रही। तन-मन-वचन में वक्रता बनी रही । मैं जैसा था, उससे विपरीत अपने आप को बताया, दिखावा और महत्त्वाकांक्षा के चक्कर में पड़ा रहा । संसाररसिक बनकर अधमता का आचरण किया, इस प्रकार संसार की विषमता में ग्रस्त होकर कर्मबन्धन अधिकाधिक किया । कर्मों के आधिक्य के कारण ही पुनः-पुनः संसार में भटकता रहा। इस संसार-दशा से दूर रहकर ही जीव अव्याबाध-सुख प्राप्त कर
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