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________________ @ २४८ कर्मविज्ञान : भाग ८ 0 गया है। इन दोनों की संगति कैसे हो सकती है? वीतगगता का साधक राग = अनुराग से कैसे जुड़ सकता है ? यह सत्य है कि जैन-परम्पग में भक्तिभाव की चर्चा अवश्य हुई है। सम्यग्दर्शन के व्यावहारिक स्वरूप में देव, गुरु, धर्म के प्रति या तत्त्वार्थ या शास्त्र के प्रति श्रद्धा, भक्ति या बहुमान का स्पष्ट उल्लेख है। विनय, वैयावृत्यतप के रूप में भी भक्ति की सार्थकता वताई गई है। सूत्रकृतांगसूत्र' में सत्थार भत्ति शब्द तथा ‘ज्ञातासूत्र' में भत्तिचित्ताओ शब्द भक्ति को परिलक्षित करते हैं। तीर्थंकर पद-प्राप्ति में सदा भूत २0 कारणों में वहाँ श्रुतभत्ति (सुयभत्ति) का . स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही वहाँ अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, तपस्वी आदि के प्रति वत्सलता या वल्लभता का उल्लेख भी भक्ति का ही एक रूप है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में अर्हत्, आचार्य, बहुश्रुत एवं प्रवचन (शास्त्र) की भक्ति तीर्थंकर पद-प्राप्ति के १६ कारणों में मानी गई है। प्रशस्तराग को भक्ति में स्थान देने के दो कारण जो भी हो, पूर्वोक्त अनुरागात्मक भक्ति में राग किसी न किसी रूप में अवश्य है। ‘कल्पसूत्र टीका' में स्नेह या अनुराग को मोक्षमार्ग में एक अर्गला बताया है। गणधर गौतम की भगवान महावीर के प्रति अनन्य-भक्ति भी रागात्मक होने से उन्हें रागांश रहा तब तक केवलज्ञान या सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ। किन्तु जैनाचार्यों ने राग के दो प्रकार निर्धारित किये-प्रशस्तराग और अप्रशस्तराग। जैनाचार्यों ने प्रशस्तराग को भक्ति के रूप में स्थान दिया, उसके मुख्यतया दो कारण हैं-एक तो अप्रशस्तराग (अशुद्ध या अशुभ राग) की ओर बढ़ती हुई जनता को देव, गुरु, धर्म और तत्त्वों के प्रति श्रद्धा में दृढ़ रखने हेतु भक्ति में प्रशस्तराग को स्थान दिया। परन्तु उसे मोक्ष-प्राप्ति में बाधक ही माना। दूसरे-यथार्थ तत्त्वदृष्टि प्राप्त होने पर भी जब तक साधक दशा है, तब तक राग रहता है अर्थात् जब तक पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त नहीं होती, तब तक उसमें राग रहेगा, किन्तु वह राग प्रशस्त हो तो उससे अशुभ राग के निरोधरूप शुभ योगसंवर अथवा प्रशस्तरागयुक्त भक्तिभाव के द्वाग अपना आत्मबोध, स्वरूपरमणता आदि होने से भावसंवर और सकामनिर्जग भी हो सकती है। १. (क) “सागर जैन विद्या भारती, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. ३० (ख) सूत्रकृतांग, श्रु. १. अ. १४. गा. २४ (ग) ज्ञातासूत्र, अ. १६, १४ (घ) तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६. सू. ४३ (ङ) मोक्खमग्ग-पवन्नाणं सिणेहो वज्जसिंखला। -कल्पसूत्र विनयविजय टीका, पृ. १२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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