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ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं? - २३७ ॐ
है, वही भक्तिमान् मानव परमात्मा का प्रिय भक्त है।' वही सच्चे माने में वीतराग परमात्मा का अनन्य भक्त है।
वीतराग परमात्मा के प्रति अनन्य-भक्ति कैसी होती है ? वास्तव में परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति वह है, जिसमें परमात्मा के प्रति विभक्ति (मन-वचन-काया से अलगाव = पृथक्ता) न हो। आत्मा को परमात्मा से विभक्त = पृथक् करने वाले जो भी पर-पदार्थ या विभाव हैं, उनके प्रति जब मोह, ममता, आसक्ति, मूर्छा, लगाव आदि होते हैं, तब परमात्मा की अनन्य-भक्ति नहीं हो सकती।
अनन्य-भक्ति जल में मछली के सदृश होती है। मछली जल में ही जीवित रहती है। जल में ही वह खाती-पीती, सोती एवं अन्य क्रियाएँ करती है। जल से अलग करके उसे मखमल के बिछौने पर सुलाने लगो तो वह नहीं सोएगी, न ही उत्तमोत्तम स्वादिष्ट भोजन या पेय खाएगी-पीएगी। जल से बाहर की वस्तुएँ चाहे जितनी आकर्षक, बहुमूल्य, कोमल एवं चमक-दमक वाली हों, मछली को उनमें जरा भी आनन्द नहीं आएगा, न ही वह उन्हें अपनाएगी। उसका ध्यान तो एकमात्र जल में ही लगा रहता है। क्योंकि जल ही उसका जीवन है। यही बात परमात्मा की अनन्य-भक्ति के विषय में समझ लीजिए। परमात्मा के प्रति जिस साधु-साध्वी या गृहस्थ नर-नारी की अनन्य-भक्ति होगी, उसे मछली की तरह परमात्मा या शुद्ध आत्मा के प्रति श्रद्धा-भक्ति, तन्मयता, ध्यान आदि के बिना सुखानुभव नहीं होगा। उसका खानापीना, सोना-जागना आदि सारा व्यवहार परमात्मा के ध्यान के अनुरूप होगा।
१. अद्वेष्टा सर्वभूतानां, मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः, समदुःख-सुखः क्षमी॥१३॥ सन्तुष्टः सततं योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पित-मनोबुद्धिः, मद्भक्तः स मे प्रियः॥१४॥ यस्मान्नोद् विजते लोको, लोकान्नोद विजते च यः। हर्षामर्ष-भयोवेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥१५॥ अनपेक्षः शुचिर्दक्षः, उदासीनो गतव्यथः। सर्वारम्भ-परित्यागी यो मदभक्तः स मे प्रियः॥१६॥ यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न कांक्षति। शुभाशुभ-परित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः॥१७॥ समः शत्रौ च मित्रे च, तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः संग विवर्जितः॥१८॥ तुल्यनिन्दा-स्तुतिौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः॥१९॥ -भगवद्गीता, अ. १३, श्लो. १३-१९ २. 'पानी में मीन पियासी' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २८३ .
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