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२३४ कर्मविज्ञान : भाग ८४
भक्ति की निश्चयात्मक परिभाषा बनती है - " सहज-सरल-सरस 'स्व' का अनुभव करना अथवा परमात्म-तत्त्व का स्वयं में अनुभव करना भक्ति है । "
क्रिया और भक्ति में अन्तर : निःस्वार्थ प्रीतिरूप-भक्ति का फल
क्रिया और भक्ति में बहुत बड़ा अन्तर है । क्रिया फल से बाँध देती है, जबकि जैनदृष्टि से भक्ति परमात्म-स्वरूप शुद्धात्म-स्वरूप से मिला देती है। अतः परमात्म-भक्ति स्व को 'स्व' के शुद्ध स्वरूप में विलीन करने वाला महामंत्र है, परमात्मपद के स्व-गुणों और भावों में स्थापित करने में सहायक महातंत्र है तथा राग-द्वेष से मुक्त करके वीतरागता से युक्त करने वाला योजनामय यंत्र है। भक्तिं को हम वीतराग परमात्मा के प्रति निःस्वार्थ प्रीति का अखण्ड स्रोत कह सकते हैं। वह प्रीति भी केवल भावनात्मक ही नहीं, वैज्ञानिक और वैधानिक प्रीति ही अन्तिम लक्ष्य के प्रति सफलता की द्योतक है। ऐसी प्रीति, जो अमरता के इच्छुक भक्त आत्मा का जन्म-मरणादि मर्त्य अवस्था से निकालकर अमरत्व - अवस्था तक अथव अजर-अमर परमात्मा, जो अमर-स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, उन तक पहुँचा देते है। वीतराग परमात्मा की भक्ति में भक्त को अमर बनाने की सामर्थ्य है । '
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नमन - स्तवन गुणोत्कीर्तनरूप निष्काम भक्ति से अलभ्य लाभ
'भक्तामर स्तोत्र' के रचयिता श्री मानतुंगाचार्य ने अनन्य भक्ति द्वारा सर्वप्रथम वीतराग परमात्मा को सम्यक्रूप से प्रणाम किया है, तत्पश्चात् ही स्तवन करने का संकल्प किया है। नमन आत्म-निवेदनरूप भक्ति का एक अंग है। नमन द्वारा परमात्मा के साथ तात्त्विक सम्बन्ध स्थापित होता है, शाश्वत आत्म-स्वरूप का बोध या स्मरण होता है, जिस स्व-स्वरूप का अनादिकाल से विस्मरण होने से वह अनेक दुःखों का मूल बन जाता है, तथैव उसका स्मरण अनन्त सुख का बीज है। भक्तिपूर्ण भावों से निश्छल, सरल और निरहंकार होकर उत्तमांग को परमात्म-चरणों में झुकाना सर्वस्व समर्पणरूप भक्ति का महत्त्वपूर्ण अंग है । तत्पश्चात् स्तुति करने को प्रवृत्त होने से अनादिकाल से 'स्व' को आवृत करने वाले मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के बन्धन यानी अज्ञानादि की बेड़ियों के बन्धन टूट जाते हैं। जन्म-जन्म
बद्ध पापकर्म छूट जाते हैं और प्रकट हुए वीर्योल्लास से व्यक्ति विषय-कषायों का, राग-द्वेष-मोह का अन्त करके या तो सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष पा लेता है अथवा इनको मन्द करके कल्पोपपन्न या कल्पातीत विमान में देव बनता है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' के
१. (क) 'भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि' से भाव ग्रहण, पृ. १ (ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, सू. ९, १४
(ग) विधिणा कदरस सस्सस्स, जहा णिष्पादयं हवदि वासं ।
तह अरहदादिग भत्ती णाण- दंसण-चरण-तवाणं ॥
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-भगवती आराधना ७५१
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