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४ २३० कर्मविज्ञान : भाग ८ ४
दिला सकता, न ही वह धन, धान्य, स्त्री, पुत्र या रोटी - कपड़ा अथवा कोई पद, प्रतिष्ठा या सत्ता दे या दिला सकता है, न ही हमारे शत्रुओं को दण्ड और मित्रों को पुरस्कार दे या दिला सकता है अथवा हमारे लिये रोटी, रोजी, सुरक्षा और शान्ति का प्रबन्ध नहीं कर सकता, हमें विपत्तियों और कष्टों से मुक्त नहीं करा अर्थात् जब वह परमात्मा हमारे कुछ काम ही नहीं आता, तव हमें उसे मानने, उसकी स्तुति-भक्ति-प्रार्थना करने से या उसकी अर्जा- पूजा करने से क्या है ? क्यों हम हमसे विमुख ऐसे परमात्मा की भक्ति करने में अपने समय, श्रम और शक्ति का व्यय करें ?'
सकता;
लाभ
यह भक्ति नहीं, भक्ति का नाटक है, सौदेबाजी है
वस्तुतः ऐसे शंकाशील व्यक्ति परमात्मा के तथा उनकी भक्ति के वास्तविक स्वरूप से तथा भक्ति के उद्देश्य से अनभिज्ञ हैं अथवा वे अन्ध-श्रद्धावश लकीर के फकीर बनकर अपने जीवन में जप, तप, ध्यान, धर्माचरण आदि का कुछ भी पुरुषार्थ न करके तथाकथित सकाम भक्ति के प्रवाह में बह जाते हैं। ऐसे लोग स्व-सम्प्रदाय-मत-परम्परा से बँधी - बँधाई विविध कामनाओं से परिपूर्ण अन्ध-भक्ति की पगडंडी पर चलते रहते हैं । परमात्म-भक्ति का उद्देश्य परमात्मा से किसी प्रकार के सांसारिक लाभ या सुख पाने की या मनःकल्पित सुख के साधन देने की माँग करना नहीं है। अगर परमात्मा उनकी लौकिक मनोकामनाओं को पूर्ण करें तो वे उनकी भक्ति करेंगे, अन्यथा नहीं, यह भक्ति नहीं, सौदेबाजी है, व्यापार है। ऐसे लोग परमात्मा को अपना सेवक, नौकर, कर्मकर या सौदेबाज से अधिक दर्जे का नहीं समझते, जबकि वीतराग परमात्मा का दर्जा संसार-मार्ग से बिलकुल पृथक् है, वह समता और वीतरागता की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए अनन्त ज्ञानादि स्वभावनिष्ठ परम शुद्ध आत्मा का है। इसी प्रकार परमात्मा की छवि या प्रतिकृति के सामने केवल नाच-गाकर या केवल उनके स्तोत्र या भक्ति-गीत गाकर उन्हें फुसलाना, उन्हें खुश करना, अपने पाप माफ करना या लोगों में झूठमूठ भक्तिमान् कहलाना, यह भी भक्ति की विडम्बना है, चापलूसी है, रिश्वत देना है।
निष्काम भक्ति और सकाम भक्ति में दिन-रात का अन्तर
भक्ति निष्काम होनी चाहिए, सकाम नहीं । परमात्मा की भक्ति का दिखावा या ढोंग करना अथवा आडम्बर या प्रदर्शन करके समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए बड़े-बड़े समारोहों का आयोजन करना - कराना अथवा नामबरी के लिए अखण्ड जाप, अखण्ड कीर्तन आदि करना - कराना या परमात्म-भक्ति की ओट में अपना कोई भौतिक या लौकिक स्वार्थ सिद्ध करना भी जैनदृष्टि से परमात्म-भाव की
१. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. २७६
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