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ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? | २२७ 8
एवं विकगल अर्जुनमाली को मुद्गर घुमाते हुए सामने देखकर भी बेधड़क होकर जा रहा था। शास्त्रकार कहते हैं-(भगवद्-भक्ति के प्रभाव से) वह जरा भी भयभीत, त्रस्त, उद्विग्न या क्षुब्ध नहीं हुआ। उसका हृदय जरा भी विचलित
और भ्रान्त नहीं हुआ।" इतनी सहन-शक्ति, इतनी मस्ती, इतनी निर्भयता और निश्चलता सुदर्शन श्रमणोपासक में कहाँ से आ गई थी? वह परमात्म-भक्ति के प्रभाव का परिणाम था।' अर्जुनमालाकार में अनगार वन जाने के पश्चात् जव भगवान महावीर के प्रति श्रद्धा, निष्ठा और आज्ञा-पालन के रूप में भक्ति जाग्रत हो गई, तव वेले (दो उपवास) के पारणे के दिन अपने पूर्व जीवन में राजगृही के जिन लोगों के कुटुम्वियों की यक्षाविप्ट-अवस्था में हत्या की थी, उसी नगर में उन्हीं या उनसे परिचित लोगों के घरों में भिक्षा के लिये जाने पर उन्हें उनके रोष, द्वेष, ताड़न, पीड़न, तर्जन, अपशब्द और आक्रोश का शिकार होना पड़ा तथा आहार-पानी का भी पर्याप्त योग न मिला, तो भी उनके मन, बुद्धि, वाणी
और काया में रंचमात्र भी हिंसक प्रतिक्रिया कदापि प्रादुर्भूत या उदित नहीं हुई, क्रोध, रोष, द्वेष, विरोध आदि के रूप में मन जरा भी क्षुब्ध नहीं हुआ। उसके पीछे मुख्य कारण था-भगवदाज्ञा, भगवत्-प्रीति, आत्मा की नित्यता, क्षमादि आत्म-गुणों के प्रति श्रद्धा के रूप में परमात्म-भक्ति। जिसके कारण उन्हें उस कष्ट, उपसर्ग और परीषह को सहने में आत्म-शक्ति और आनन्द की अनुभूति हुई। इस प्रकार परमात्म-भक्ति के प्रभाव से उनमें इतनी सहन-शक्ति, तितिक्षाक्षमता और समता की सानन्द आराधना आ गई कि जिस परमात्मपद-प्राप्ति अथवा सर्वकर्ममुक्ति की उपलब्धि के लिए संयम (मुनिधर्म) अंगीकार किया था, उसे सिर्फ छह महीने में सिद्ध कर लिया और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त, अव्याबाध-सुखसम्पन्न परमात्मा बन गए। ___ गजसुकुमाल मुनि भी इसी प्रकार परमात्मा की आज्ञाराधनारूप भक्ति के प्रभाव से सोमल ब्राह्मण द्वारा दिये गए घोर मारणान्तिक उपसर्ग को समभाव से सहकर, सोमल के प्रति मन से भी द्वेष न करते हुए सिर्फ एक ही रात्रि में
१. तए णं से सुदंसणे समणोवासए मोग्गरपाणिं जखं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभिए, अतत्थे, अणुविग्गे, अखुभिए, अचलिए असंभंते ।
-अन्तकृद्दशासूत्र, वर्ग ६, अ. ३, सू. पा. ११ २. अप्पेगइया अक्कोसंति, अप्पेगइया हीलंति, जिंदंति, खिसंति, गरिहंति, तज्जेंति, तालेंति।
आओसेज्जमाणे जाव तालेज्जमाणे तेसिं मणसा वि अप्पउस्समाणे सम्म सहइ, सम्म खमइ, सम्मं तितिक्खइ, सम्मं अहियासेइ । तए णं से अज्जुणए अणगारे अदीणे, अविमणे, अकलुसे, अणाविले, अविसाइ, अपरितंतजोगी अडइ। तेणं उरालेणं तिउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे जस्सट्ठाए कीरइ जाव सिद्धे।
-अन्तकृद्दशांग, वर्ग ६, अ.३
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