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ॐ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? २१९
बौद्धों के कर्मोपचय निषेधरूप क्रियावाद से मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती 'सूत्रकृतांगसूत्र' में मोक्षमार्ग के सम्बन्ध में बौद्धों के कर्मोपचय निषेधवादरूप क्रियावाद का निरूपण किया गया है । वृत्तिकार के अनुसार उसका रहस्य यह है कि जो कर्म (क्रिया) केवल चित्त विशुद्धिपूर्वक किया जाता है, उसे बौद्धमत में प्रधान रूप से मोक्ष का अंग माना जाता है।
वृत्तिकार ने इसका खण्डन करते हुए कहा है कि ये एकान्त क्रियावादी बौद्ध ज्ञानावरणीय आदि कर्म (बन्ध ) की चिन्ता से रहित (दूर) हैं, अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्म किन-किन कारणों से, किस-किस तीव्र - मन्द आदि रूप में बँध जाते हैं ? वे सुख-दुःख आदि के जनक हैं या नहीं ? उनसे छूटने के क्या-क्या उपाय हैं ? इत्यादि कर्म-सम्बन्धी चिन्ता = चिन्तन से वे एकान्त क्रियावादी दूर हैं।
कर्मबन्ध कब होता है, कब नहीं ? : बौद्धमत विचार
बौद्ध दार्शनिक चार प्रकार के कर्मोपचय को कर्मबन्ध का कारण नहीं मानते(१) परिज्ञोपचित कर्म - कोपादि कारणवश जानता हुआ केवल मन से किया गया हिंसादि कर्म जो शरीर के छेदन-भेदनादि द्वारा नहीं किया जाता । (२) अविज्ञोपचित कर्म - अनजान में शरीर से किया गया हिंसादि कर्म । (३) ईर्यापथ कर्म-मार्ग में जाते हुए अनभिसन्धि से होने वाला हिंसादि कर्म । (४) स्वप्नान्तिक कर्म - स्वप्न में होने वाला हिंसादि कर्म । इन चारों प्रकार के कर्मों से पुरुष (कर्ता) स्पृष्ट होता है; बुद्ध नहीं । ऐसे कर्मों के विपाक का भी वह स्पर्शमात्र वेदन (अनुभव) करता है। स्पर्श के बाद ये चतुर्विध कर्म नष्ट हो जाते हैं। यही सोचकर कर्मबन्ध से निश्चिन्त होकर वे कर्म करते हैं।
वे कहते हैं-कर्मोपचय (कर्मबन्ध) तभी होता है जब - ( 9 ) हनन किया जाने वाला प्राणी सामने हो, (२) हनन करने वाले को यह भान (ज्ञान) हो कि यह प्राणी है, और (३) हनन करने वाले की ऐसी बुद्धि हो कि मैं इसे मारता हूँ या मारूँ। इन तीन कारणों के अतिरिक्त दो कारण और हैं - ( १ ) पूर्वोक्त तीन कारणों के रहते, यदि वह उस प्राणी को शरीर से मारने की चेष्टा करता है, (२) उस चेष्टा के अनुसार उस प्राणी को मार दिया जाता है; तभी हिंसा होती है और कर्मों का उपचय (बन्ध) होता है।
इसी प्रकार बौद्धमतानुसार - पापकर्मबन्ध के तीन कारण और हैं - ( १ ) स्वयं किसी प्राणी को मारने के लिये उस पर आक्रमण या प्रहार करना, (२) नौकर आदि दूसरों को प्रेरित या प्रेषित करके प्राणिवध कराना, (३) मन से प्राणिवध के लिए अनुज्ञा या अनुमोदना करना । ये तीनं पापकर्मोपचय के कारण इसलिए हैं कि इन तीनों में दुष्ट अध्यवसाय = राग-द्वेषयुक्त परिणाम रहता है।
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