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४ २१६ ४ कर्मविज्ञान : भाग ८
हैं, तो तथागत बुद्ध का ५०० वार जन्म ग्रहण करना बताया गया है, विना कर्मबन्धन के जन्म ग्रहण करना कैसे संगत हो सकता है ? वौद्ध ग्रन्थ के एक श्लोक में बताया गया है - "माता - पिता को मारकर बुद्ध के शरीर से रक्त निकालकर, अर्हद्वध करने से तथा धर्मस्तूप को नष्ट करने से मनुष्य अर्वाचिनरक में जाता है।" ये सब क्रियाएँ कर्मवन्ध के विना कैसे हो सकती हैं? यदि सर्व शून्य है तो शास्त्र रचना भी कैसे हो सकती है ? यदि कर्म वन्धनकारक नहीं है, तो जीवों. का अस्तित्व, उनका जन्म-मरण, रोग-शोक, उत्तम - मध्यम - अधम आदि विभिन्नताएँ किस कारण से दिखाई देती हैं ? इन सब पर से जीव का अस्तित्व, उसका कर्तृत्व, भोक्तृत्व तथा कर्मवन्ध होना और कर्मफल पाना सिद्ध होता है। स्पष्ट है, वौद्धों द्वारा मिश्रपक्ष का स्वीकार करने पर भी वे सर्वशून्यतावाद का मताग्रह रखते हैं। अतः सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष का मार्ग अक्रियावाद नहीं हो सकता है।
सांख्य अक्रियावादी हैं, वे आत्मा को सर्वव्यापी मानकर भी प्रकृति से वियुक्त होने को मोक्ष कहते हैं। यदि मोक्ष मानते हैं तो बन्ध अवश्य मानना पड़ेगा। जब बन्ध मोक्ष आत्मा का होता है तो आत्मा का क्रियावान् होना भी स्वीकृत हो जाता है। क्योंकि क्रिया के बिना बन्ध और मोक्ष कदापि संभव नहीं होते। अतः मिश्रपक्षाश्रयी सांख्य आत्मा को निष्क्रिय करते हुए अपने ही वचन से उसे क्रियावान् कह बैठते हैं। अक्रियावादियों द्वारा सूर्य के उदय-अस्त, चन्द्र के वृद्धि-हास का, जल एवं
वायु की गति का किया जाने वाला निषेध प्रत्यक्ष - प्रमाण-विरुद्ध है। ज्योतिष आदि विद्याओं को पढ़े बिना ही लोक- अलोक के पदार्थों का जान लेने को दावा करना मिथ्या एवं पूर्वापर-विरुद्ध है । प्रत्यक्ष दृश्यमान वस्तुओं को भी स्वप्न, इन्द्रजाल या मृगमरीचिका-सम बताकर, उनका अत्यन्ताभाव घोषित करना भी युक्ति-प्रमाणविरुद्ध है।
एकान्त क्रियावादी वे हैं, जो एकान्तरूप से जीव आदि का अस्तित्व मानते हैं तथा ज्ञानरहित केवल दीक्षा आदि की क्रिया ही मोक्ष प्राप्ति मानते हैं। वे कहते हैं-माता-पिता आदि सब हैं, पुण्य-पाप आदि भी हैं, उनका शुभाशुभ कर्मफल भी मिलता है, पर मिलता है केवल क्रिया से ही । जीव में दुःख आदि जो कुछ भी होता है, वह सब अपना किया हुआ होता हैं; काल, ईश्वर आदि दूसरों का किया हुआ नहीं।
एकान्त क्रियावाद के १८० भेद
निर्युक्तिकार ने एकान्त क्रियावाद के १८० भेद बताएँ हैं। जीव-अजीव आदि ९ तत्त्वों पर स्वतः-परतः, ये दो भेद, फिर उनके नीचे नित्य-अनित्य, ये दो-दो भेदों की स्थापना करने से ९ × २ ३६ भेद हुए। उनके नीचे फिर काल,
= १८ × २
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