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________________ ॐ निर्जरा का मुख्य कारण : सुख-दुःख में समभाव * ३ ॐ पीड़ा, विपदा आदि आ पड़े, उस समय दुःख से न तड़फना ही समभावपूर्वक कर्मफल भोगकर निर्जराधर्म को पाने = वन्धन से आंशिक मुक्ति पाने की कला है। जो व्यक्ति इस धर्म की कला नहीं जानता, वह कर्मवन्ध की श्रृंखला में सदा जकड़ा रहता है, इसे जाने विना जीवन और जीविका की सभी कलाएँ अर्थहीन वन जाती हैं। धर्मकला से अव्याबाध सुख-प्राप्ति जो व्यक्ति शुभाशुभ कर्मफल को समभाव से भोगने की कला जानता है, वही धर्म की कला को आत्मिक-सुख-अव्याबाध आनन्द की प्राप्ति की कला को जान लेता है, जीवन में आचरित भी कर लेता है। कर्मफल को भोगने की कला को भलीभाँति जान लेता है, उसमें उदारता, महानता, सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति निर्लिप्तता, सहिष्णुता तथा सभी परिस्थितियों में प्रसन्नता आ जाती है। पुण्योदय के फलस्वरूप भौतिक सुख के प्रचुर साधन मिलने पर भी वह हर्षोन्मत्त या गर्वोद्धत नहीं होता, वह उसमें आसक्त या लिप्त भी नहीं होता, वह विवेकपूर्वक जीवन-पथ पर चलता है। भरत चक्रवर्ती की निर्लिप्तता और सुखभोग में समता भरत चक्रवर्ती को राज्यऋद्धि, अपार वैभव, ऐश्वर्य और भौतिक सुख के सभी साधन प्राप्त थे। उनके पास चौदह अद्भुत रत्न थे, जिनसे वे मनचाहा कार्य सम्पन्न कर सकते थे। मतलब यह है कि चक्रवर्ती भरत वैभव-विलास की सभी सामग्री होते हुए भी उससे अलिप्त रहते थे। यही कारण है कि वे समस्त कर्मों से शीघ्र ही मुक्त हो सके। ___ एक बार उनकी निर्लिप्तता की कठोर कसौटी हुई। भगवान ऋषभदेव ने जब धर्मसभा में यह कह दिया कि भरत चक्रवर्ती पूर्व पुण्य के फलस्वरूप सुख-सामग्री प्राप्त होने पर भी निर्लिप्त है और मोक्षगामी है। उस पर एक व्यक्ति ने शंका उठाई-"भगवान भी अपने पुत्र का पक्षपात करते हैं, इतना अपार वैभव होते हुए भी निर्लिप्त है और इस परिषद में त्यागी-तपस्वी, साधु तथा सद्गृहस्थ बैठे हैं, वे मुक्तिगामी एवं निर्लिप्त नहीं; यह कैसे हो सकता है ?" उस व्यक्ति को समझाने के लिए भरत चक्रवर्ती ने तेल से लबालब भरा कटोरा उसके हाथ में देकर अयोध्या के सारे बाजारों में घुमा लाने का आदेश सिपाहियों को दिया और साथ में यह भी कहा-“यदि इस कटोरे में से तेल की एक बूंद भी गिर गई तो इसका सिर उड़ा दिया जाए।" चक्रवर्ती की आज्ञा को मान्य करके वह व्यक्ति मौत के डर से घबराता हुआ, तेल की बूँद न गिर जाए, इसकी पूरी सावधानी रखते हुए अयोध्या नगर के For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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