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________________ ॐ २०० * कर्मविज्ञान : भाग ८ * (कर्मबन्ध) से युक्त होती है। परन्तु आत्मा अपने आप में निर्मल है-स्वच्छ है, 'पर' के आवरण से वह मलिन होती है। आवश्यकता है-'पर' के आवरण, मोह-ममत्व और विश्वास को हटाकर निज शुद्ध स्वरूप को पहचानने की। जिसने अपनी आत्मा को सर्वांगरूप से, सम्यकप से जान लिया, पहचान लिया, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया, बन्धन से मुक्त होने का रहस्य ज्ञात कर लिया। यह विचित्र बात है कि मनुष्य आत्मा से भिन्न पर-भावों, विभावों और बाह्य पदार्थों को, भौतिकविज्ञान को जानने-पहचानने में तो बहुत ही भाग-दौड़ कर रहा है, अन्ध-विश्वास, मूढ़ता और अविवेक के कारण वह भौतिक तत्त्वों, पर-पदार्थों और विभावों पर जितनी रुचि और श्रद्धा रखता है, उतनी ही नहीं, अंशमात्र भी रुचि, श्रद्धा, ज्ञान, पहचान एवं आत्म-शुद्धि करने में पुरुषार्थ नहीं करता। फिर कैसे प्रकट हो, आत्मा में निहित परमात्मा-शक्ति? आज का मनुष्य अन्य सब कुछ जान-समझ लेने पर भी अपने आप को नहीं जान-समझ पाता। वस्त्र जब मैला हो जाता है तो साबुन से उसे स्वच्छ किया जाता है। वस्त्र की स्वच्छता कहीं बाहर से नहीं आई, वह तो उसके अन्दर ही थी। इसी प्रकार आत्मा अपने आप में निर्मल, स्वच्छ और शुद्ध है, परन्तु उस पर राग-द्वेष की, कषायों की, कर्मों की कलुषता-मलिनता लगी हुई थी, तब तक वह अस्वच्छ, मलिन, अपवित्र प्रतीत होती थी, परन्तु उक्त मल और कालुष्य के दूर हटते ही, उसकी स्वाभाविक स्वच्छता और निर्मलता तथा पावनता प्रकट हो जाती है। राग-द्वेष, मोह, कषायों या पदार्थों के प्रति आसक्ति तथा तज्जनित कर्मबन्ध आदि के क्षय होते, दूर होते ही आत्मा को मोक्ष, मुक्ति या अपवर्ग की शाश्वत स्थिति प्राप्त हो जाती है। आज त्याग, वैराग्य, कर्मकाण्ड और भक्ति तथा बाह्य ज्ञान की चर्चाएँ बहुत होती हैं, घण्टों उन पर भाषण होता है, परन्तु वे त्याग, वैराग्य जीवन की धरती पर क्यों नहीं उतर पाते? इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता है कि अभी तक अधिकांश साधकों के अन्तस्तल में आत्म-निष्ठा, आत्म-आस्था और आत्म-श्रद्धा सही माने में प्रादुर्भूत नहीं हुई है। उच्च कोटि के साधकों तक में भी 'स्व' पर निष्ठा प्रतीति या विश्वास नहीं जगता है। वे प्रायः प्रतिष्ठा, प्रशंसा, प्रसिद्धि, पर-पदार्थासक्ति, पर-पदार्थाधीनता, परभाव-दासता आदि में रचे-पचे रहते हैं। जहाँ आत्मा है, वहीं उसका मार्ग और मोक्ष रहना चाहिए दूसरी बात यह है-निश्चयदृष्टि के सिद्धान्तानुसार कारण और कार्य को एक स्थान पर रहना चाहिए। मोक्ष कार्य है और उसका मार्ग कारण है। क्योंकि यहाँ मार्ग का अर्थ है-साधन, उपाय, कारण और हेतु। अतः जहाँ आत्मा है, वहीं उसका मोक्ष है, इसलिए जहाँ आत्मा है, वहीं उसका मार्ग होना चाहिए। निश्चय की भाषा में कहें तो जहाँ मोक्ष है, वहीं उसका मार्ग, साधन या कारण रहेगा। मोक्ष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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