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ॐ १८८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
मिल सकता है? इस तथ्य को भी वे नहीं जानते। इस प्रकार संधि को भलीभाँति जाने बिना वे संसार-परिभ्रमणादि दुःखों से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकते।' द्वितीय प्रबल कारण : धर्म-विषयक अज्ञान
'सूत्रकृतांगसूत्र' के अनुसार-पंचमहाभूतवादी (लोकायतिक), एकात्मवादी, तज्जीव-तच्छरीरवादी" (चार्वाक), अकारकवादी (सांख्य), आत्म-षष्टवादी (वैशेषिक और सांख्य), पंचस्कन्धरूप एवं चतुर्धातुकरूप क्षणिकवादी बौद्ध तथा सांख्यादि दार्शनिक मिथ्यात्व से ग्रस्त होने के कारण तथा आत्मा के धर्म (स्वभाव) विषयक अज्ञान के कारण संसार-परिभ्रमणादि दुःखों से मुक्त नहीं हो सकते। . क्योंकि जब वे आत्मा को ही नहीं मानते या मानते हैं तो उसे. पंचभौतिकरूप, शरीररूप या कूटस्थ नित्य, निष्क्रिय या चतुर्धातुरूप अथवा क्षणजीवी पंचस्कन्धरूप मानते हैं, तब वे आत्मा के धर्म (स्वभाव) को तथा उसके ज्ञान-दर्शन-चारित्र, सुख
और वीर्य (शक्ति) आदि निजी गुणों को या आत्मा के परिणामी नित्य स्वभाव को वे नहीं जान पाते, न ही मानते हैं। अतः इनका ज्ञान, दर्शन या चारित्र शुद्ध आत्म-लक्षी न होने से मोक्ष-प्राप्ति से काफी दूर है। बल्कि इनके मत या वाद संसारमार्ग के परिपोषक हैं। १. (क) देखें-'पाइअ-सह-महण्णवो' में संधि शब्द के ६ अर्थ, पृ. ८४२,
(ख) सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १, उ. १, गा. २०-२६, विवेचन (आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ४२ २. संतिपंच महब्भूया इह मेगे सिं आहिया।
पुढवी आउ तेऊ वाऊ आगास पंचमा॥७॥ एवे पंच महब्भूया तेब्भो एगोत्ति आहिया। अह एसिं विणासे उ विणासो होइ देहिणो॥८॥
-सूत्रकृतांग १/१/१/७-८ ३. जहा हि पुढवी घूभे एगे नाणा हि दीसइ। एवं भो कसिणे लोए विण्णू नाणा हि दीसए॥९॥
-वही १/१/१/९ ४. पत्तेयं कसिणे आया, जे बाला जे य पंडिता।
संति पेच्चा ण ते संति, णत्थि सत्तो ववाइया॥११॥ णत्थि पुण्णे व पावे वा, णस्थि लोए इतो परे। सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो॥१२॥
-वही १/१/१/११-१२ ५. कुव्वं च कारवं चेव, सव्वं कुव्वं ण विज्जति। एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगभिया॥१३॥
-वही १/१/१/१३ ६. संति पंच महब्भूता, इहमेगेसिं आहिता। आयछट्ठा पुणेगाऽहु, आया लोगे य सासते॥१५॥
-वही १/१/१/१५ ७. पंचखंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो। अन्नो अणन्नो णेवाऽऽहु, हेउयं च अहेउयं ॥१७॥
-वही १/१/१/१७ ८. पुढवी आऊ तेऊ य तहा, वाउय एगओ। चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसु जाणगा॥१८॥
-वही.१/१/१/१८ ९. देखें-सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. १, उ. १, गा. ७-१८, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ.
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