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________________ * मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप १५९ होता है। जैन साधुवर्ग के लिए उसका सम्यग्दर्शन- ज्ञान के साथ सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप के रूप में आचरण करना सुलभ, सुगम और आसान होता है। इसी दृष्टि से 'सूत्रकृतांग' में उक्त मार्ग नामक अध्ययन में प्रशस्त भावमार्गरूप मोक्षमार्ग की साधना करने के लिए उच्च साधकवर्ग के लिए ७ गाथाओं द्वारा कुछ साधना-सूत्र दिये गए हैं। उन ७ गाथाओं का सार यह है -(१) भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित साधुधर्मरूप भाव (मोक्ष) मार्ग को सम्यग्दर्शन - ज्ञानपूर्वक स्वीकार करके महाघोर संसार-सागर को पार करे । (२) आत्मा को पाप से बचाने के लिए संयम में पराक्रम करे। (३) साधुधर्म में दृढ़ रहने के लिए इन्द्रिय-विषयों से विरत हो जाए। (४) जगत् के समस्त प्राणियों को आत्म-तुल्य समझकर उनकी रक्षा करता हुआ पूर्ण संयम में प्रगति करे । (५) चारित्र - विनाशक क्रोध-मान- माया-लोभरूप कषायों को संसारवर्द्धक जानकर उनका निवारण करे | (६) एकमात्र निर्वाण के साथ अपने मन-वचन-काया व आत्मा को जोड़ दे। (७) साधुधर्मरूप मोक्षमार्ग को अथवा दशविध श्रमणधर्म को या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म को केन्द्र में रखकर प्रवृत्ति करे । (८) बारह प्रकार की तपश्चर्या में अपनी पूरी शक्ति लगाए । ( ९ ) क्रोध और मान को न बढ़ाए अथवा इन्हें सफल न होने दे। (90) अतीत और भविष्य में जो भी बुद्ध (सर्वज्ञ) हुए हैं या होंगे, उन सबके जीवन और उपदेश का मूलाधार शान्ति ( कषाय - मुक्ति ) रही है, रहेगी। (११) अनगारधर्मरूप भावमार्ग को स्वीकार करने के बाद जो भी परीषह या उपसर्ग आए, साधु महावात से महागिरि सुमेरु की तरह संयम पर अविचल रहे। (१२) वह मोक्षयात्री साधु गृहस्थवर्ग द्वारा प्रदत्त एषणीय आहार . सेवन करे । ( १३ ) शान्त रहकर अन्तिम समय में समाधि (पण्डित) मरण की प्रतीक्षा करे। इन' १३ साधना - सूत्रों को साधु - जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्तिम समय तक आचरित करे।' साधन शुद्ध होने पर ही शुद्ध साध्य प्राप्त किया जा सकता है जैनदर्शन साध्य और साधन के विषय में बहुत ही स्पष्ट है । साध्य की सिद्धि ' के लिये साधन का होना अनिवार्य है। साधन के अभाव में साधक कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, साध्य को प्राप्त नहीं कर सकता । साध्य कितना ही ऊँचा हो, द्रव्य और भाव, व्यवहार और निश्चय सभी पहलुओं से उसका विचार कर लेने के पश्चात् साधन का भी द्रव्य और भाव, व्यवहार और निश्चय की दृष्टि से विचार करना आवश्यक हो जाता है । साध्य जितना ऊँचा और गहन होता है, १. (क) देखें - सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ११ (मार्ग), गा. ३२-३८ (मूल और अर्थ ) (खं) वही, श्रु. १, अ. ११ की गाथाओं का सारभूत विवेचन ( आ. प्र. स., ब्यावर ), पृ. ३९७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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