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________________ ॐ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप ॐ १५५ 8 प्रस्तुत मार्ग-अध्ययन के प्रारम्भ में गणधर सुधर्मास्वामी से उनके शिष्य जम्बूस्वामी ने जिज्ञासा की है कि अहिंसा के परम उपदेष्टा (महामाहन), केवलज्ञानी, (सर्वज्ञ) सर्वदर्शी, विशुद्ध मतिमान् से प्रशस्त भाव (मोक्ष) मार्ग कौन-सा, किस स्वरूप का और किन साधकों से युक्त बताया है, जिस सरल मार्ग को पाकर दुस्तर संसार (सागर) को मनुष्य पार कर सके? सर्वदुःखों से मुक्त करने वाला, वह शुद्ध और अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) मोक्षमार्ग कौन-सा है? इस जिज्ञासा का सुधर्मास्वामी द्वारा भगवत्प्रतिपादित समाधान संक्षेप में इस प्रकार किया गया"जैसे समुद्रमार्ग से विदेश में व्यवसाय करने वाले व्यापारी समुद्र को सही-सलामत पार कर लेते हैं, वैसे ही इस (प्रशस्तभाव = मोक्ष) मार्ग का आश्रय लेकर बहुत-से जीवों ने संसार-सागर को पार किया है, वर्तमान में भी कई भव्य जीव पार करते हैं और भविष्य में भी बहुत-से जीव इसे पार करेंगे।'' निर्वाणमार्ग : माहात्म्य; द्वीपसम आधारभूत, साधक के लिए उपादेय इसी सन्दर्भ में इसी अध्ययन में मोक्षमार्ग के ऊपर नाम निर्वाणमार्ग का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है-“जिस प्रकार सभी नक्षत्रों में सौन्दर्य, सौम्यता, परिमाण एवं प्रकाशरूप गुणों के कारण चन्द्रमा को प्रधान माना जाता है, वैसे ही निर्वाण को ही प्रधान मानने वाले तत्त्वज्ञ साधक (स्वर्ग के देव इन्द्र, चक्रवर्ती एवं धनपति इत्यादि पदों को त्याज्य और निकृष्ट समझकर निर्वाणपद (निर्वाणपथ) को ही परम (सर्वश्रेष्ठ) पद मानते हैं।'' मुनि (आत्मार्थी मनस्वी साधक) सदैव दान्त एवं यत्नशील (यतनाचारी) होकर निर्वाण के साथ ही सन्धान करे, अर्थात् निर्वाण को लक्ष्यगत रखकर मानसिक-वाचिक-कायिक सभी प्रवृत्ति करे। मिथ्यात्व-कषायादि संसार-सागर के स्रोतों के तीव्र प्रवाह में बहते हुए एवं अपने पूर्वकृत कर्मों के उदय से दुःख पाते हुए प्राणियों के लिए तीर्थंकर देव निर्वाणमार्ग को ही आश्वासनदायक, विश्रामभूत एवं आश्रयदायक श्रेष्ठ द्वीप तथा मोक्ष-प्राप्ति का आधार (प्रतिष्ठान) बताते हैं। अर्थात (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप) निर्वाणमार्ग ही मोक्ष का प्रतिष्ठान (संसार-परिभ्रमण से श्रान्त साधकों के लिए विश्रान्तिरूप स्थान या मोक्ष-प्राप्ति का आधार है। आत्मगुप्त (मन-वचन-काया द्वारा आत्मा की पापकर्मों से रक्षा करने वाला) सदा दान्त, छिन्नस्रोत (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि) संसार के स्रोतों (आस्रवों) का अवरोधक या छेदक एवं आम्रवरहित (संवरधर्मा) जो साधक है, वही इस परिपूर्ण एवं अद्वितीय निर्वाणमार्गरूप शुद्ध धर्म का व्याख्यान (उपदेश) करता है। १. (क) सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. ११ (मग्गो = मार्ग). गा. १-६. विवेचन (आ. प्र. स., _ ब्यावर), पृ. ३८७-३८८ (ख) वही, शीलांक वृत्ति, पत्र १९८-१९९ २. वही, श्रु. १, अ. ११, गा. २२-२४ (मूल, अर्थ, विवेचन) (आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ३९४-३९५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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