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® १३८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
की बातें झटपट गले नहीं उतरतीं। किन्तु वैदिकधर्म-परम्परा में उपनिषदकाल में कई ऋषियों ने मोक्ष की कल्पना की। उसके पश्चात् भगवद्गीता, महाभारत, भागवत् में तथा नैयायिक, वैशेषिक, शैव, जैमिनीय, वेदान्त आदि दर्शनों में विभिन्न रूप से मोक्ष का स्वरूप प्रतिपादित किया। परन्तु जैनदर्शनसम्मत मोक्ष के स्वरूप से इनके स्वरूप में काफी अन्तर है। मोक्ष के अस्तित्व के विषय में शंका और समाधान ___जो दर्शन या मत मोक्ष के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, उनके कुछ तर्क हैं। प्रथम तर्क यह है कि कर्मबन्ध की परम्परा अनादि है तो उनका अन्त कैसे हो सकेगा? जब समस्त कर्मों का अन्त नहीं होगा, तो मोक्ष भी कैसे सम्भव हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे बीज और अंकुर की संतान अनादि होने पर. भी अग्नि से अन्तिम बीज को जला देने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी : प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन कर्मबन्ध के हेतुओं के तथा कर्मबन्ध-संतति के अनादि होने पर भी ध्यानाग्नि (या द्वादशविध तपोऽग्नि) से कर्मबीजों को जला देने पर भवांकुर की उत्पत्ति नहीं होती, यही. मोक्ष है। जैनदर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' में मोक्ष का यही लक्षण दिया गया है-बन्ध के हेतुओं के अभाव एवं निर्जरा द्वारा समस्त कर्मों का क्षय हो जाना, सर्वकर्मों से मुक्त या विमुक्त हो जाना मोक्ष है। कर्म और आत्मा के अनादि सम्बन्ध को तोड़कर मोक्ष कैसे प्राप्त हो ?
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि मानने पर पुनः प्रश्न उठता है कि जब उनका सम्बन्ध अनादि है तो फिर उसे तोड़ा कैसे जा सकता है? क्योंकि अनादि सम्बन्ध तो कभी टूट नहीं सकता। फिर कर्मों से सम्बन्ध तोड़े बिना आत्मा का मोक्ष कैसे होगा? इसका समाधान जैनदर्शन के विविध ग्रन्थों में दिया गया है। ‘षड्दर्शन समुच्चय' में कहा गया है कि यद्यपि रागादि दोष (भावकर्म के हेतु) अनादिकाल से इस आत्मा के साथ हैं।
फिर भी इनकी प्रतिपक्षी विराग भावनाओं से इनका नाश होता ही है। जस किसी स्त्री में आसक्त कामी पुरुष जब स्त्री के शरीर को वास्तविक रूप में हड्डी, माँस, मल, मूत्र, रक्त आदि का एक कोथला समझ लेता है, तब उसके राग का आवेग इतना शान्त हो जाता है, वह दृढ़ वैराग्य में बदल जाता है कि वह उस स्त्री को रागभाव से क्षणभर भी देखना उचित नहीं समझता; इसी प्रकार वैराग्य
१. (क) राजवार्तिक १०/२/३/६४१/४ से भाव ग्रहण (ख) बन्ध हेत्वभाव निर्जराभ्यां, कृत्स्नकर्म-क्षयो (प्रमोक्षो) मोक्षः।
__-तत्त्वार्यसूत्र, अ. १0/२, १
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