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________________ प्रक्रिया संवर और निर्जरा धर्म पर विस्तृत रूप में चिन्तन किया गया है । संवर के अन्तर्गत दस श्रमणधर्म और मैत्री आदि शुभ भावनाओं/ अनुप्रेक्षाओं पर विवेधन किया है। क्योंकि जब तक कर्म प्रवाह का निरोध नहीं होगा, तब तक आत्मा कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकेगा। कर्म-सरोवर में आता जल-प्रवाह जब तक रुकेगा नहीं, तब तक उस जल को सुखाकर सरोवर को खाली करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता । संवर धर्मकर्म प्रवाह को रोकता है। निर्जरा से संचित कर्म जल सूख जाता है। इसलिए सातवें भाग में संवर एवं निर्जरा के भेदोपभेदों पर, उसकी बहुमुखी, बहुआयामी साधना पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत आठवें भाग में मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष से आत्मा का योग कराने वाले पंचविधयोग, बत्तीस योग-संग्रह, पंच आचार, ध्यान एवं अन्तःक्रिया आदि के स्वरूप पर विस्तारपूर्वक अनेक सन्दर्भों व उदाहरणों के साथ विवेचन किया गया है। इस प्रासंगिक प्राक्कथन के साथ ही आज मैं अपने अध्यात्म नेता, श्रमणसंघ के महान् आचार्यसम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज व आचार्यसम्राट् राष्ट्रसन्त महामहिम स्व. श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का पुण्य स्मरण करता हूँ, जिन्होंने मुझे श्रमणसंघ का दायित्व सौंपने के साथ ही यह आशीर्वाद दिया था कि " अपने स्वाध्याय, ध्यान और श्रुताराधना की वृद्धि के साथ ही श्रमणसंघ में आचार कुशलता, चारित्रनिष्ठा, पापभीरुता और परस्पर एकरूपता बढ़ती रहे - जनता को . जीवन-शुद्धि का सन्देश मिलता रहे इस दिशा में सदा प्रयत्नशील रहना ।" मैं उनके आशीर्वाद को श्रमण- जीवन का वरदान समझता हुआ उनके वचनों को सार्थक करने की अपेक्षा करता हूँ चतुर्विध श्रीसंघ से । मेरे परम उपकारी पूज्य गुरुदेव स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज का पावन स्मरण करते हुए मैं अपनी श्रद्धा व विश्वास के सुमन उनके पावन चरणों में समर्पित करता हूँ कि उनकी प्रेरणा और आशीर्वाद मुझे जीवन में सदा मिलता रहा है और मिलता रहेगा । आदरणीया पूजनीया मातेश्वरी प्रतिभामूर्ति प्रभावती जी महाराज व बहिन महासती पुष्पवती जी महाराज की सतत प्रेरणा सम्बल के रूप में रही है। कर्म-विज्ञान जैसे विशाल ग्रन्थ के सम्पादन में हमारे श्रमण संघीय विद्वद् मनीषी मुनि श्री नेमिचन्द्र जी महाराज का आत्मीय सहयोग प्राप्त हुआ है। मुझे विहार, प्रवचन, जनसम्पर्क व संघीय कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण समयाभाव Jain Education International ३ ११४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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