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________________ कर्मविज्ञान : भाग ८ आज्ञाविचय का स्वरूप और चिन्तन की पद्धति आज्ञाविचय का अर्थ है - वीतराग परम आप्त, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी प्रभु की आज्ञा आदेश के अनुरूप विचय यानी विचार करना । अर्थात् प्रभु आज्ञा के अनुरूप वस्तुतत्त्व- चिन्तन मनोयोगपूर्वक करना; वह भी योग्य स्थान और योग्य आसन से बैठकर । ११४ तीर्थंकर भगवान सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे, संसार के किसी भी स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ का स्वरूप उनके ज्ञान से ओझल नहीं तथा वे वीतराग थे, इसलिए असत्य भाषण नहीं कर सकते, क्योंकि असत्य भाषण के हेतु होते हैं- राग, द्वेष, मोह, जो उनमें जरा भी नहीं थे। उनके परस्पर अविरोधी वचनों से यह भलीभाँति प्रमाणित होता है कि वे आप्त थे तथा उनकी सर्वज्ञता और वीतरागता का जीता-जागता हैं-उनका आदर्श चरित्र। अतः उनके द्वारा बताये गए प्रमाण, नय, नमूना निक्षेप आदि के द्वारा वस्तुतत्त्व का निर्णय करना, उत्पाद व्यय - ध्रौव्य द्वारा सुनिश्चित होने वाले परिणामिनित्यत्व के सिद्धान्त की स्थापना के माध्यम द्रव्य-भावश्रुत द्वारा तीर्थंकर देव द्वारा प्रज्ञप्त श्रुत चारित्र सम्बन्धी समस्त आज्ञाओं पर चिन्तन-मनन करना, . १ प्रथम भेद है। अपायविचय का स्वरूप और उसकी चिन्तन-पद्धति अपायविचय-अपाय का अर्थ है - दुःख । उसके मुख्य कारण हैं- राग, द्वेष, मोह और विषय - कषाय । इन सबके चिन्तन की भूमि है - अपायविचय धर्मध्यान । अपायविचय के लिए चिन्तन इस प्रकार करना चाहिए - " इस संसार में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के दुःखों से सांसारिक प्राणी त्रस्त हैं। वे शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, व्याधि, आधि और उपाधि से जकड़े हुए हैं, दुःखों का अन्त नहीं कर पा रहे हैं। सौभाग्य से मैं संसार-सागर को पार करने हेतु सम्यग्दर्शनादि चार मोक्ष साधनों की सहायता से दुसार संसार-सागर के किनारे आ पहुँचा हूँ। यहाँ से फिसल पड़ने का भय अभी बाकी है। इसलिए मुझे बहुत ही सावधान और अप्रमत्त रहने की जरूरत है। यहाँ तक पहुँचने पर मेरे विवेकचक्षु का आवरण कम हो गया है। मैं अपने स्वरूप को यत्किंचित् समझने लगा हूँ। मैं समझता हूँ कि मैं ( मेरी शुद्ध आत्मा) अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख (आनन्द) और अनन्त आत्म-शक्तियों से पूर्ण (शुद्ध) सिद्ध परमात्मा हूँ, परन्तु वर्तमान में अष्टविध कर्मपंक से सम्पर्क से मेरे में जो मलिनता, कुण्ठा, आवरण एवं मूढ़ता (सुषुप्ति) आई हुई है, उसे मैं प्रबल ध्यानाग्नि ज्वाला से भस्म करके शुद्ध स्वर्णवत् अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के लिए मुझे १. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २७-२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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