SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० कर्मविज्ञान : भाग ८ शब्द प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है । समाधि अर्थ में वह साध्यरूप से निर्दिष्ट है और संयोग अर्थ में उसका साधनरूप से परिचय मिलता है । " परम साध्य की प्राप्ति की दृष्टि से समाधि और संयोग, ये दोनों अर्थ साध्य-साधनरूप हैं इन दोनों प्रकार के योगों में से जो संयोगार्थक योग शब्द है, जिसकी हमने पूर्व पृष्ठों में मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में चर्चा की है, उसमें बत्तीस प्रकार के योग-संग्रह में सहजयोग के वे समस्त साधन निर्दिष्ट हैं, जिनकी साधक को अपने अन्दर ध्यान अथवा समाधि की योग्यता या क्षमता प्राप्त करने के लिए आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक शास्त्र की योग-प्रणाली में ये सब साधनयोग या क्रियायोग कहलाते हैं। इस प्रक्रियात्मक योग-संग्रह के अनुसार योग के समाधि और संयोग, ये दो अर्थ साध्य - साधनरूप में फलित होते हैं। संयोगरूप योग साधन है और समाधिरूप योग साध्य है । इतना ध्यान रहे कि समाधिरूप योग में जो साध्यत्व का निर्देश है, वह समाधि के उपायभूत यम-नियमादि की अपेक्षा से है, इसलिए वह अपेक्षाजन्य (सापेक्ष) साध्य है। दोनों प्रकार के योगों का परम साध्य तो मोक्ष है। उस अपेक्षा से तो समाधिरूप योग भी मोक्ष का अन्तरंग, साधन होने से वह साधनकोटि में ही परिगणित है। आगमों और योगग्रन्थों में दोनों अर्थों के प्रमाण इस दोनों अर्थों के बीज आगमों तथा योगग्रन्थों में मिलतें हैं। 'ध्यानशतक' की टीका में योग का लक्षण संयोगरूप बताया गया है। योग वह है जो आत्मा को उसके केवलज्ञानादि निजी गुणों से संयुक्त कर देता है तथा 'उत्तराध्ययन' की बृहद्वृत्ति में योगवान् उसे कहा गया है जिसके जीवन में योग यानी समाधि हो । अतः पूर्वोक्त दोनों अर्थों में प्रतिबिम्बित होने वाले योग शब्द का निम्नोक्त फलितार्थ निष्पन्न होता है, जिसके द्वारा आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो सके, आत्म-गुणों की पूर्णता तक पहुँच सके, जो आत्मा को उसके परम साध्य सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष के साथ संयुक्त कर दे - जोड़ दे, उसका नाम योग है। योग के इन दोनों अध्यात्मपरक मौलिक अर्थों में स्वाभाविक रूप से मोक्ष साधक धर्मानुष्ठान का ही निर्देश प्राप्त होता है । ' १. (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ३-५ (ख) युज् समाधौ युजिर् आयोगे । (ग) योगः समाधिः, सोऽस्यास्तीति योगवान् । - सिद्धांतकौमुदी धातुपाठ -उत्तराध्ययन, अ. ११, गा. १४ की बृहद्वृत्ति (घ) युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योगः । Jain Education International - ध्यानशतक वृत्ति (आचार्य हरिभद्रसूरि ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy