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________________ उसके बाहर आठ कर्म वलय हैं। जैसे कोई पहलवान अखाड़े में उतरने से पहले पूरे शरीर को तेल चुपड़ लेता है फिर वह कसरत व्यायाम करता है तो हवा में व्याप्त मिट्टी के कारण उस शरीर से चिपक जाते हैं। आत्मा की लगभग यही स्थिति है। इन कर्म कणों में कुछ कर्म आत्मा की शक्ति पर आवरण डालते हैं जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण। यह आवरण आँखों पर पड़े पर्दे की तरह आत्मा की ज्ञान-दर्शन आदि शक्तियों को ढंक लेता है। कुछ कर्म विकारक होते हैं वे आत्मा में मोह, मूर्छा, आसक्ति पैदा करके उसे दिग्मूढ़ कर देते हैं, जैसे-मोहनीय कर्म। मदिरा के नशे की तरह यह ज्ञानमय आत्मा को मोह की मूर्छा से ग्रस कर देता है आत्मा अपनों को पहचान नहीं पाता और पर-वस्तु के प्रति आसक्ति, मोह, राग आदि करने लगता है। इसे हम विकारक शक्ति कह सकते हैं। आवरक शक्ति से विकारक शक्ति ज्यादा खतरनाक है। इसी कारण मोहकर्म को सबसे प्रबल और सबसे अधिक हानिकारक माना है। कुछ कर्म न आवरण डालते हैं और न विकार पैदा करते हैं किन्तु आत्मा की शक्ति में रुकावट या प्रतिरोध पैदा कर देते हैं। इस प्रतिरोधक शक्ति को ही अन्तराय कर्म कहते हैं। व्यक्ति अनेक कल्पनाएँ करता है, मंसूबे बाँधता है, योजनाएँ बनाता है और प्रयत्न भी प्रारंभ करता है परन्तु कुछ न कुछ विघ्न-बाधाएँ आ जाती हैं और उसकी इच्छाएँ धरी की धरी रह जाती हैं। इस प्रकार की बाधा उत्पन्न करने वाले कर्म को अन्तराय कर्म के नाम से पहचाना गया है। अन्तराय कर्म आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों पर आवरण डालता है, उसमें मूर्छा या मोह भाव जगाकर भ्रमित करता है तथा प्रबल पुरुषार्थ शक्ति में प्रतिरोध पैदा करके सहज उपलब्धियों में बाधक बनता है। आत्मा को अपने अनन्त चतुष्टय स्वरूप को प्रकट या जाग्रत करने के लिए कर्म का क्षय करना अनिवार्य है। कर्मवाद के मुख्य चार आधार-स्तम्भ हैं-आनव-बंध, संवर-निर्जरा। कर्मवंध के हेतु और बंध की विभिन्न प्रक्रिया, स्थितियाँ, परिणतियाँ; आम्रव और बंध तत्त्व विवेचन में बताई गई हैं तथा कर्म प्रवाह को रोकने तथा कर्मों को क्षय करके उनसे मुक्त होने की प्रक्रिया संवर एवं निर्जरा तत्त्व में समाहित है। इस प्रकार हमने भाग १ से ४ तक में कर्म के आम्रव और वंध म्वरूप की विवेचना करने के पश्चात कर्ममुक्ति की प्रक्रिया के प्रसंग में संवर तथा निर्जग तत्त्वों के अगणित भेद-प्रभेद, संवर-निर्जरा के उपाय, उनकी साधना आदि पर विस्तार से चिन्तन किया है। भाग ५, ६, ७ में इन तत्त्वों पर काफी विवेचन हो गया है और मुझे विश्वास है पाठक इस गहन विषय का स्वाध्याय करने पर काफी कुछ ग्रहण कर सकेगा। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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