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________________ ॐ बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में ॐ १०७ 8 कुशल मनुष्य अपने उपकरणों = साधनों के सत्पुरुषार्थ से भौतिक पदार्थ को विकसित, परिष्कृत और सुसंस्कृत कर देता है, वैसे ही आध्यात्मिक-साधना में कुशल, अभ्यस्त, प्रशिक्षित मनुष्य अपने त्रिविध साधनों के सत्पुरुषार्थ से आत्मा को विकसित, सुसंस्कृत और परिष्कृत कर मोक्षरूप साध्य की प्राप्ति के योग्य बना देता है। है इसमें प्राप्त साधनों का ही चमत्कार, जिनके सदुपयोग या शुद्धोपयोग से साध्य-प्राप्ति सुगम हो जाती है। इन्होंने त्रिविधयोगरूप साधनों के सही उपयोग से साध्य-प्राप्ति की वाल्मीकि ने चेतना को जाग्रत एवं विकसित करने के लिए विपरीत दिशा में बहिर्मुखी बने हुए मन-वचन-कायायोगरूप साधनों को अन्तर्मुखी बनाने का पुरुषार्थ किया तो वे पतितात्मा से महात्मा बन सके। अर्जुन मालाकार ने विपरीत दिशा में हिंसारत बने हुए त्रिविध साधनों को विषय-कषायों एवं राग-द्वेषादि कल्मषों से दूर रख परिशुद्ध और निर्मल बनाने का स्वयं प्रयत्न किया तो वे महामुनि बने, उन्होंने उन्हीं साधनों से मोक्षरूप साध्य प्राप्त किया। जिन-जिन लोगों ने भौतिक-साधना वाले प्रेममार्ग पर अपने त्रिविधयोगों को दौड़ाया, उन्होंने जिस दिन अपने उन्हीं त्रिविधयोगों का-साधनों का सही मूल्य समझकर उन्हें अध्यात्म-साधना के श्रेयमार्ग पर लगाया, वे एक दिन मोक्षरूप साध्य को प्राप्त कर सके। हरिकेशबल मुनि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। योग का आध्यात्मिक समाधि के अर्थ में प्रयोग आध्यात्मिक समाधि के अर्थ में भी योगियों ने योग शब्द का प्रयोग किया है। यह योग का विशिष्ट अर्थ है। महर्षि पतंजलि ने योग का अर्थ चित्तवृत्ति का निरोध किया है। परन्तु जैनाचार्य हरिभद्रसूरि जैसे समभावी आचार्यों ने मोक्ष के साथ जोड़ने वाले विशुद्ध धर्म-व्यापार को योग कहा है, अर्थात् योग मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। इस अपेक्षा से योग सर्वकर्ममुक्ति की अवस्था तक पहुँचाने वाला है। परन्तु इस अवस्था तक पहुँचने के लिए अध्यात्म-साधनाशील साधक को कई प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करना पड़ता है। ये साधन भी प्रमुख योग के सधिक होने से इन्हें भी योग कहा जाता है।२ 'ध्यानशतक' में कहा गया है"जिसके द्वारा आत्मा को केवलज्ञानादि के साथ संयुक्त किया (जोड़ा) जाता है, उसे योग कहा जाता है।" १. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ४१२ २. (क) योगः समाधिः, स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः। स्थानांगसूत्र, स्था. ३ वृत्ति (ख) योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। -योगदर्शन १/१ .. (ग) मोक्खेण जोयणाओ जोगो, सब्बोवि धम्मवावारो। -हरिभद्रसूरि कृत योगदृष्टि समुच्चय ३. युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योगः। -ध्यानशतक वृत्ति (हरिभद्रसूरि) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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