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कर्मविज्ञान : भाग ८
न होकर धर्मध्यान ही होता है। इसमें एक अपवाद भी है - माषतुष, मरुदेवी आदि के पूर्वधर न होने पर भी उन्हें मोह क्षय के कारण शुक्लध्यान हुआ है।
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योग तीन हैं-मन, वचन और काय । शुक्लध्यान के चार प्रकारों में से प्रथम शुक्लध्यान एक योग या तीनों योग वाले मुनियों को, द्वितीय शुक्लध्यान तीनों में से एक योग वाले साधकों को, तृतीय शुक्लध्यान सिर्फ काययोग वाले सयोगीकेवली मुनियों को एवं चतुर्थ शुक्लध्यान अयोगीकेवली को होता है। अयोगीकेवली में उपयोगरूप भावमन होता है, अतः उनमें भी चौथा शुक्लध्यान मानने में कोई आपत्ति नहीं है । '
(४) समतायोग
समतायोग की महत्ता और उपयोगिता
मोक्ष की ओर ले जाने वाला तथा जिसके बिना किसी भी क्रियाकाण्ड, साधना आदि से मोक्ष नहीं हो सकता, तप, जप, ध्यान, धारणा, मौन आदि में भी जिसके बिना सफलता नहीं मिलती, वह है समतायोग । समतायोग ध्यान में अत्यन्त उपयोगी है, आध्यात्मिक विकास में समतायोग साथ-साथ सहचर की तरह चलता है।
समतायोग से आत्मा में परमात्म-स्वरूप प्रकट हो जाता है
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प्रत्येक आत्मा में परमात्म-स्वरूप स्वाभाविक रूप से निहित है । परन्तु समतायोगी पुरुष ही उस परमात्म स्वरूप को आत्मा में जानते और देखते हैं। केवलज्ञानी भगवन्त तो शुद्ध आत्म-स्वरूप के निरोधक रागादि अन्धकार का नाश सामायिकरूपी सूर्य के द्वारा करते हैं। अतः सामायिक (समतायोग ) रूपी सूर्य का प्रकाश होते ही रागादि अन्धकार का नाश हो जाता है और आत्मा में परमात्म स्वरूप प्रकट हो जाता है।
समतायोग की साधना के बिना मोक्ष-प्राप्ति असम्भव
सामायिक (समतायोग) का महत्त्व बताते हुए कहा गया है - जो भी साधक अतीत में मोक्ष में पधारे हैं, वर्तमान में मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में मोक्ष प्राप्त करेंगे, वह सारा प्रभाव सामायिक ( समतायोग ) का है। कोई कितना ही तीव्र तप, जप या मुनिवेश धारण कर स्थूल बाह्य क्रियाकाण्ड कर ले, व्यवहारचारित्र का कितना ही पालन कर ले, समभावरूप सामायिक के बिना मोक्ष प्राप्ति असम्भव है। सामायिक समभाव का महोदधि है, क्षीरसागर है, उसमें जो भी साधक पूणिया श्रावक की तरह स्नान करता है, वह सामान्य श्रावक होने पर भी साधु से भी
१. (क) शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः, परे केवलिनः ।
(ख) ध्यानशतक, श्लो. ८३; योगशास्त्र, प्र. ११, श्लो. १०
- तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ३९-४०
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