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________________ * ४६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ स्वतंत्रता का रागादि या कषायादि के त्याग तथा कर्मों के क्षय करने में उपयोग करूँ, मोक्ष-प्राप्तिकारक सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म का आचरण करने में लगाऊँ; यही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पराक्रम है कार्य है। अकषाय-संवर के साधक को कर्मों के निरोध एवं क्षय के लिए इसी प्रकार का चिन्तन-मनन और . पराक्रम दृढ़तापूर्वक करना चाहिए।"१ कषाय-विजय के लिए प्रति क्षण जागृति आवश्यक साथ ही उसे संवर-निर्जरारूप सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म का आचरण करते हुए प्रति क्षण जाग्रत रहकर यह देखते रहना है, इससे मेरे काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह, माया, ईर्ष्या, राग-द्वेष, वैर-विरोध आदि कहीं, किसी निमित्त से, किसी भी कोने से प्रविष्ट तो नहीं हो रहे हैं ? जिसमें इस प्रकार की जागृति होगी, जिसके सामने लक्ष्य प्रति क्षण चमकता रहेगा, वह मन-वचन-काया से तथा इन्द्रिय-विषयों में यथावश्यक प्रवृत्ति करता हुआ भी अन्तर से सावधान रहेगा, कषायादि को फटकने नहीं देगा। उसका चिन्तन यह होगा कि एक ओर तो मैं संवर-निर्जरारूप धर्म करके कषायों पर विजय प्राप्त करने तथा उन्हें सर्वथा दूर करने का एवं रागादि-संस्कारों को नष्ट करने का प्रयत्न कर रहा हूँ; परन्तु दूसरी ओर अगर मैं अपनी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों में अंदर ही अंदर कषायों को पोसता रहूँगा, राग-द्वेषादि को बढ़ाता रहँगा और उनमें सुख मानता. रहँगा, तो फिर उन्हें त्यागने और खदेड़ने का काम बढ़ जाएगा। फिर मुझे अनन्तकाल तक संसार-परिभ्रमण कराने वाले कषायों और कर्मों के इशारों पर नाचना पड़ेगा। कितना महंगा पड़ेगा, कषायों और राग-द्वेषों को पपोलने और अन्तर से उन्हें अपनाने का यह कार्य ? इतनी जागृति होगी तो मन-वचन-काया पर अंकुश रहने से अकषाय-संवर के अभ्यास में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी, सुसंस्कार दृढ़ होते जाएँगे। इस प्रकार कषायों से आत्मा हलकी और शुद्ध होकर कर्ममुक्ति की साधना में सफलता प्राप्त कर सकेगी। प्रवृत्तियों में सर्वत्र कषाय-विजय का ध्यान रहे निष्कर्ष यह है कि मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों में जब कषाय-त्याग का ध्यान रखा जाएगा तो कर्मक्षयकारक सद्धर्म की प्रवृत्तियों में तो (तीव्र) कषाय-त्याग तो १. 'दिव्यदर्शन' (प्रवक्ता : विजयभुवनभानुसूरीश्वर जी), दि. १-९-९० के अंक से भावांश ग्रहण, पृ. ५ २. वही, दि. १-९-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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