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ॐ भेदविज्ञान की विराट् साधना * ४६९ ®
दुःख क्यों होता है, व्यक्ति को ? दुःख इसलिए होता है कि व्यक्ति ने 'अ स्व' को पहले तो भ्रान्तिवश 'स्व' माना, फिर 'अस्व' को 'स्व' मानकर जो भी आत्म-बाह्य सजीव-निर्जीव पदार्थ संगृहीत किया, उससे ममत्व-अहत्वपूर्वक प्रतिबद्ध हुआ, तदनन्तर वह अनित्य होने के कारण छूट गया।
भेदविज्ञानी का कर्म और कर्मपर्याय से पृथक्ता का स्पष्ट अनुभव भेदविज्ञान के साधक के समक्ष यह स्पष्ट चिन्तन होता है कि पदार्थ के परिणमन में आत्मा (चेतना) का कर्तृत्व नहीं होता, किन्तु चेतना के परिणमन में पदार्थ का कर्तृत्व निमित्तमात्र होता है, वहाँ केवल निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है, अभेद-सम्बन्ध नहीं। इसलिए भेदविज्ञान का साधक कर्म से तथा कर्मफल से (कर्म से प्राप्त होने वाली विविध पर्यायों से) स्वयं को पृथक्-स्वतंत्र अनुभव करता है, संसार के सम्बन्धों से भी स्वयं (आत्मा) को स्वतंत्र अनुभव करता है, शरीरगत सुख-दुःखों से भी स्वयं को भिन्न अनुभव करता है, मानसिक, बौद्धिक, चित्तगत तथा इन्द्रियगत सुख-दुःखों से भी स्वयं (आत्मा) को स्वतंत्र अनुभव करता है। वह “एगोऽहं न मे कोइ।"-मैं अकेला (आत्मा) हूँ, मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का हूँ। इस प्रकार एकमात्र एकाकी आत्म-भाव में ही रमण करता है, वही भेदविज्ञान की अन्तिम परिणति है। भेदविज्ञान के सहारे से जैसे-जैसे साधक में एकाकीपन का भाव प्रकट होता है, वैसे-वैसे उसकी चेतना अनावृत और परम शुद्ध होती जाती है।
भेदविज्ञान जीवन में परिपक्व हो जाने पर जब तक भेदविज्ञान जीवन में परिपक्व नहीं होता, तब तक व्यक्ति शरीर को ही सब कुछ समझता है, आत्मा के गुण, स्वभाव, कार्य आदि अदृश्य होने के कारण वह उसे मानने से सर्वथा इन्कार कर देता है। फलतः सत्ता आदि के अहंकार से गर्वित व्यक्ति नास्तिक होकर हत्या, चोरी, आतंक, डकैती, भ्रष्टाचार आदि भयंकर • से भयंकर कुकर्मों को करने से नहीं हिचकता। पर जब उसे किसी सत्संग से, सद्ग्रन्थ सें, किसी घटना से अन्तर्बोध मिल जाता है, आत्म-ज्योति का परिचय गाढ़ हो जाता है, तब वही व्यक्ति भेदविज्ञान की लौ में आत्मा की नित्यता हृदयंगम करके शरीर को नष्ट होते देख हँसते-हँसते शरीर का त्याग कर देता है। संलेखना-संथारापूर्वक समाधिमरण के साधक इसी भेदविज्ञान के आश्रय से अपने पूर्वकृत कर्मों को नष्ट कर देते हैं, संवर और निर्जरा का महालाभ प्राप्त कर लेते हैं।
प्रदेशी राजा ने भेदविज्ञान के प्रकाश में समाधिमरण प्राप्त किया केशीकुमार श्रमण का सत्संग पाकर श्वेताम्बिका-नरेश प्रदेशी राजा का जीवन-परिवर्तन हो चुका और भेदविज्ञान के प्रकाश में शरीर और आत्मा की
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