SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ भेदविज्ञान की विराट् साधना ॐ ४५७ ॐ देने में अहर्निश तत्पर रहेगा। जिसके मन में शरीर ही सर्वस्व या मूलाधार बन जाता है, वह त्याग, तप रत्नत्रयरूप धर्माचरण, परीषह-सहन, कर्मक्षय के लिए समता, क्षमा आदि धर्मों की पगडंडी पर या मोक्षमार्ग पर नहीं चल सकता। न ही वह सम्यग्दृष्टि बनकर जीव-अजीव आदि तत्त्वों पर चिन्तन-मनन करता है, न ही इनमें हेय-उपादेय का विवेक करता है। अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति अथवा शुद्ध परिणति का ज्ञान, दर्शन और आचरण तो बहुत दूर की बात है, उसके लिए। शरीर ही जिसके लिए सर्वस्व होगा, वह इन्द्रियों और मन का गुलाम बनकर अपना जीवन नष्ट कर देगा। बहुधा भेदविज्ञान के तत्त्व से अनभिज्ञ और अरुचिमान् व्यक्ति शरीर और शरीर-सम्बद्ध पदार्थों के लिए अपना अमूल्य मानव-जीवन नष्ट कर देते हैं। अगर प्रातः उठने से लेकर रात को सोने तक के उनके कार्यकलापों पर दृष्टिपात किया जाए तो पता लगेगा कि शरीर को ही 'मैं' समझने वाले कर्मों के आसव, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष के तत्त्वज्ञान-तत्त्वश्रद्धान से अनभिज्ञ लोग प्रायः अपना सारा समय, श्रम, मनोयोग शरीर और उसके साथ जुड़े हुए परिकर या पदार्थों के निमित्त खपाते हैं। इन्द्रियों की लिप्साएँ, मन की आकांक्षाएँ तथा उदर आदि अंगों की क्षुधाएँ तरह-तरह की फरमाइशें प्रस्तुत करती हैं और भेदविज्ञान या तत्त्वज्ञान से शून्य व्यक्ति उनकी पूर्ति के लिये येन-केन-प्रकारेण साधन जुटाने की उधेड़बुन में, संकल्प-विकल्पों में, चिन्ता और उद्विग्नता में लगे रहते हैं। दिन में शरीर और उसके परिकर के लिए ही प्रायः सारा श्रम और रात्रि को विश्राम, यही प्रायः उनके जीवन का दैनिक क्रम हो जाता है। इस प्रकार भेदविज्ञान के अभाव में आत्मा की कितनी अधोगति होती है? यह स्वयं समझा जा सकता है। शरीर से आत्मा के पृथक्त्व का भेदविज्ञान हृदयंगम न होने से बहिरात्मा बना हुआ मानव-शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति मोह, ममत्व, मूर्छा, आसक्ति, लालसा और तृष्णा के भँवरजाल में पड़कर संवर-निर्जरारूप धर्म का अथवा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म का पालन करना तो दूर रहा, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग के द्वारा अशुभ कर्मों का आस्रव और बन्ध करता रहेगा। भेदविज्ञान का दीपक जले बिना आत्मा को कर्मबन्धक विकार घेर लेंगे - भेदविज्ञान का दीप जले बिना उसके जीवन में कर्मबन्धक राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि विकारों का अन्धकार दूर नहीं होगा, वह आत्म-गुणों की या १. णाहं देहो, ण मणो, ण चेव वाणी, ण कारणं तेसिं। कत्ता ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं॥ -प्रवचनसार, गा. १६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy